Sunday, February 20, 2011

मैंने चिर साधना की है

मैंने चिर साधना की है 
युग भारित कण कण जम
मैं आज महापाषाण हुई ,
काल कुठाराघात सहकर
संजीवन थी निष्प्राण हुई .
 
निष्प्राण सही ,साकार बनूँ
सिर्फ तेरा आकार बनूँ
मैंने यही प्रार्थना की है .
मैंने चिर साधना की है .
 
गर्वित हिम खंड खंड हो
करुणा प्रवाह में बह गया,
उत्तुंग शिखर चूर चूर हो
रेती बनकर रह गया .
 
इस रेती में पद चाप बने
हृदय स्पंदन का ताप बने
मैंने यही आराधना की है .
मैंने चिर साधना की है .
 
तपस्विनी मैं ,प्रतीक्षा में तपकर
पिघल गयी हूँ नीर होकर ,
रेंगती रही सर्पिल पथ पर
विरहिणी मैं ,अधीर होकर
.
 
ढूंढ रही हूँ अंकोर तेरी
जिसमें विलीन हो रूह मेरी
मैंने यही वंदना की है .
मैंने चिर साधना की है.
 

-अजीत पाल सिंह दैया

अधीर हृदय पर मूक अधर

तड़प मेरी फूलों में घुलकर
महक रही है मधुमय होकर ,
भ्रमर प्रतीक्षा कब तक होगी
डरती क्षण क्षण सिहर सिहर.
मेरे हृदय स्पंदन को छूकर
स्नेह आवेगों की ऊष्मा पाकर ,
समीरण सन्देश तो लाया होगा
उबल रही है मन की लहर .
विरह का मधु आसव पीकर
फिर लज्जालु होठों को सीकर ,
धधक रही अंतस की ज्वाला
उग्र हो रही है मंथर मंथर .
ढूंढ रही मैं सुध बुध खोकर
नयनों को अश्रु से धोकर ,
केवल बिम्ब तुम्हारा दीखता
मेरी पड़ रही है दृष्टि जिधर .
मन हल्का हो अंतस को कहकर
पीड़ा को शब्दों में पिरोकर ,
जाने क्यों मैं इतनी विवश
अधीर हृदय पर मूक अधर .
-अजीत पाल सिंह दैया