बरसात की उस शाम
छत पर खड़े होकर
धनुक को निहारते हुए
मुझे लगा कि
तुम मुस्कुराई हो
अपने गांव में
रोटी रोटी बेलते बेलते
मुझे याद करते
विस्मित सी
ठहरी हुई लम्हा लम्हा
ह्श्श ! ! ! !
तवे पर रखी
तुम्हारी रोटी जल रही है
दालान में बेठी
तुम्हारी माँ महसूस कर रही है ।
अजीत पाल सिंह दैया
ब्लोगिंग जगत में स्वागत है
ReplyDeleteलगातार लिखते रहने के लिए शुभकामनाएं
जितनी अच्छी कविता उतने ही अच्छे चित्र है । बधाई !
ब्लोगिंग जगत में स्वागत है
ReplyDeleteलगातार लिखते रहने के लिए शुभकामनाएं
जितनी अच्छी कविता उतने ही अच्छे चित्र है । बधाई !
http://tarachandkitruestory.blogspot.com/
bahut achha likha hai apne..aur ummid hai ki age bhi is se badhiya lekh likhte rahenge....bahut bahut subhkamnay...sankar-shah.blogspot.com
ReplyDeleteसादर अभिवादन
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपकी रचना के लिए ढेरो बधाई
ब्लोग्स के नए साथियो में आपका बहुत बहुत स्वागत
चलिए एक मुक्तक से अपना परिचय करा रहा हूँ
चले हैं इस तिमिर को हम , करारी मात देने को
जहां बारिश नही होती , वहां बरसात देने को
हमे पूरी तरह अपना , उठाकर हाथ बतलाओ
यहां पर कौन राजी है , हमारा साथ देने को
सादर
डा उदय ’मणि’ कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
अच्छी कविता, स्वागत ब्लॉग परिवार में.
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