Monday, December 21, 2009

जब कि तुम


जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.
तुम चांदनी सी उतरती हो जब
पूनम की रात उजली चुनरी में
मैं बचाना चाहता हूँ तुम्हारा दामन
अँधेरे के कलुषित दाग से
ना जाने क्यों
जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.

स्वयं को ना पहचान सका अब तक
स्वयं के प्रकाश में ,
स्वयं को पहचानने की आस में
अक्सर ढूँढने लगता हूँ अपना
अस्तित्व तुम्हारी आँखों की असीम गहराइयों में
यूं ही अनायास
जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.

जिस रात तुम आई थी
पहली बारिश में भीगी
माटी की सी महक सी
मेरे सपने में ,
वही सपना आज तक सहेज कर
रखा है अपनी पलकों पर
आने वाली हर रात के लिए
और आज भी मुन्तजिर हूँ तुम्हारा
जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.

@ अजीत पाल सिंह दैया

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