उस रोज़
पापा ने देख लिया था
वह रूमाल,
जिसके एक कोने पर
मैंने कशीदे से K लिखा था ।
तब सिहरन सी उठी थी
मेरे बदन में ,
घर में किसी का भी नाम
K पर तो नहीं है
कदाचित प्रश्न कौंधा हो
पापा के मन में।
मैं आज भी
अपनी पुरानी संदूक से
अक्सर निकाल कर
उस रूमाल को
उसके कोने पर उकेरे
रेशमीन K पर
अपनी अँगुलियों के
पोर फेर कर
महसूस करती हूँ
तुम्हारे अहसास को।
और अब भी
किसी के द्वारा
देख लिए जाने की
आशंका के डर कर
सिहर उठती हूँ।
आज भी मेरे घर में
किसी का नाम
K पर नहीं है।
--अजीत पाल सिंह दैया
कविता बहुत सुन्दर है...भावो से भरपूर लेखन...आपका ब्लॉग देखा सुन्दर स्केच उकेरे है आपने ...पी एस
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