Saturday, August 1, 2009

मै, मेरी नज्म और प्रिया

गुलमोहर के उस दरख्त पर
रहने वाली उस बुलबुल को
सुनाया करता था
रोज़ एक नज़्म लिख कर ,
जिसका आना जाना था उसके घर ।
या तो बुलबुल ने ही सुनायी नहीं होंगी
नज्म मेरी उसको
या वोह ही रही होगी
अड़ियल जिद्दी ।
दिल उसका गर था पत्थर ,
पत्थर दिल सजनी ,
इशरत में मेरी फ़िर भी था दम
न उसका अड़ियलप
न नज्म मेरी
ज़रा भी हुए कम ।
पर ........पर .....
आख़िर वही हुआ
जो मैं चाहता था
जो चाहती थी शायद वोह भी
और फ़िर उन लम्हों को
आदत हो गयी ....
कॉफी हाउस की
कार्नर टेबल पर
मैं ,मेरी नज्में और
प्रिया !!!
@ अजीत पाल सिंह दैया