Sunday, March 20, 2011

किरण

हर सुबह
खिड़कियों से
दाखिल होकर
मेरे कमरे में
किरण ,
समेट कर
रजनी की रजाई
मेरी पलकों पर
हल्का सा
चुम्बन  देकर
खींच लाती है
मुझे सपनों की
वादियों से बाहर .

-APSD

Monday, March 7, 2011

नारी से

घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
आज जगत में विष व्यापा है
भाग-दौड़ आपा-धापा है
आज विश्व में और मनुज में
दुःख उमड़े हैं ज्वार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
कोई मनु है बीच भंवर
नौका है ,पर बिन धीवर
कामायनी तट पर पहुंचा दो
श्रद्धा की पतवार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
पीलो प्याला भरा गरल
विष अमृत में जाय बदल
मीरा ,विक्रम को दिखला दो
पुष्प हार बना सर्प हार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
वनवास मिला है फिर राम को
छोड़ चले सुख धाम को
सीता ,कंकर के भूषण
स्वीकार करो मुक्ता-हार  से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
आवश्यकता हुई वीरांगना
उतर फेंको कर से कंगना
रिपु दमन कर दो लक्ष्मी
अपनी पराक्रमी तलवार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
आज उठा है बनवीर निर्दय
संकट में है सिंह उदय
पन्ना चन्दन को अमर करो
धर्म की कटार  से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
- अजीतपाल  सिंह दैया

Saturday, March 5, 2011

"द गर्ल विद ब्लू आईज़"

अल्बर्ट हॉल के
ठीक सामने वाली रोड के किनारे
गुल मोहर के एक बूढ़े दरख़्त के नीचे
एक टूटी हुई बेंच
जिस पर पुते हरे रंग की
पपड़ियाँ उखड चली थीं ,
पर बैठ कर
उसे रोज़ देखना
मेरा शगल था ,
अल सुबह
वह हमेशा ही आया करतीं थी
एक कटोरी ज्वार लेकर
और शिद्दत से फेंका करती थी
कबूतरों को दाना ,
कबूतरों का दल भी
शायद आशना हो गया था
उसके पदचापों का
कि उसके आने की आहट मात्र से
खींचे चले आते थे उसकी जानिब
बिला संकोच , निडर से
वे नीले नीले कबूतर
और उसका नीला दुपट्टा
अरे हाँ ,मैंने तो उसे
हमेशा ही उसी नीले दुपट्टे में देखा था ,
पता नहीं उसके पास
एक वही दुपट्टा था या
उसी रंग के कई दुपट्टे.
मैंने ऐसा महसूस किया था
कि उसे नीले रंग से प्यार था,
नीला दुपट्टा ,नीली चूड़ियाँ
और नीले कबूतर
और फिर मैंने रोज़ ही
देखा था उसे ,
कबूतरों को पूरे दाने 
फेंकने के बाद 
अल्बर्ट हॉल की पृष्ठ भूमि में 
नीले नीले आसमान को कुछ मिनटों तक
लगातार निहारना ,
पता नहीं क्यूं ,
पर में पूरे विश्वास से 
कह सकता हूँ 
कि उस वक्त भी वह 
अल्बर्ट हॉल को नहीं ,
नीले आसमान को निहार रही होती थीं.
एक दिन जाने कहाँ से 
मुझ में हिम्मत आई 
वरना मैं तो हमेशा से ही रहा हूँ 
दब्बू -संकोची किस्म का ,
हाँ एक दिन 
मैंने उसके पास जाकर कहा -
"तुम शायद मुझे नहीं जानती 
पर ..पर ...फिर भी 
मेरी तरफ से यह ...
तुम्हारे खुले बालों को 
तुम इस से बांधना
बहुत खूबसूरत लगोगी " 
मेरे हाथों से नीला रिबन लेते हुए
उसने कहा -
"गुल मोहर वाले लड़के
मैं तुम्हे जानती हूँ.."
सिर्फ इतना कह कर
तेज़ क़दमों से चली गयी वह
रामनिवास बाग के मेन गेट की तरफ .
अगले दिन सुबह
जब वह कबूतरों को
चुग्गा डालने आई
तो उसके बालों में
बंधा हुआ था नीला रिबन.
कुछ देर बाद जब
वह खिला चुकी थी दाने कबूतरों को
तो तेज़ क़दमों से मेरी तरफ बढ़ी ,
उसे इतनी तेज़ी से मेरी तरफ
आते देख मैं सहसा सहम गया ,
मेरे पास आकर उसने
अपने दुपट्टे में छुपाया हुआ
एक पैकेट निकल कर मुझे थमाया
और बोली -
"शुक्रिया ,गुलमोहर वाले लड़के "
और मुस्कुराते हुए चल दी मेनगेट की तरफ,
मैं उसे तब तक देखता रहा 
जब तक उसके काले बालों पर बंधा 
नीला रिबन ओझल न हो गया .
मैंने  नीले रिबन से बंधे उस पैकेट को
खोल कर देखा -
उसमें नीले कवर वाली
एक खूबसूरत डायरी थी
तथा था एक अंग्रेजी उपन्यास
"द गर्ल विद ब्लू आईज़"
उस दिन के बाद
फिर कभी मुझे
दिखायी नहीं दी
नीली आँखोंवाली वह लड़की .....
@अजीत पाल सिंह दैया