Friday, September 25, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘पालोलिम बीच’

क्या जरूरत थी इस ड्रेस को पहन कर आने की? कितनी चीप लग रही हो।
चीप! तमीज़ से बात करो। देखो उधर, पूरी दुनिया तो ऐसे कपड़ों में डोल रही है।
देखो अपने आपको, पानी में भीगकर बदन पर चिपक गयी है यह ड्रेस। तुम्हारे स्तन दिख रहे हैं।
स्तन! छी! कोई और वर्ड नहीं मिला तुम्हें डिक्शनरी में।
मुझे यह ठीक नहीं लगता। जिस्म की नुमाइश।
मतलब यहाँ सारे लोग मुझे ही देखने आए हैं। अरे, गोआ में ऐसे कपड़े नहीं पहनुंगीं तो कहाँ पहनूँ? कांकरिया लेक पर!
टेक इट ईज़ी। चिल्लाओ मत, लोग देख रहे हैं। मेरा मतलब यह नहीं है।
डेमोक्रेसी में कपड़े पहनने की आज़ादी तो मिलनी नहीं चाहिए क्या यार, हम लोगों को।
हम लोगों को!
यस, आई एम टाकिंग अबाउट होल वुमनकाइंड। इंक्लुडिंग मी।
मतलब क्या है तुम्हारा? डेमोक्रेसी विल बी डिफ़ाइंड बाइ द साइज़ ऑफ द वुमेन्सवेयर। जिस लड़की की टाँगें जितनी ज्यादा उघड़ी है, वह उतनी ही ज्यादा स्वतंत्र है!
नो डिबेट प्लीज़। वी केम हियर फॉर द फ़न। होटल में लड़ लेना। और मैंने भी तो मानी थी न तुम्हारी बात कल रात। मिरामार बीच पर मैंने तुम्हारी जिद पर ‘वोडका’ पी थी। देर सुबह तक हेंग ओवर रहा था मुझको।
अच्छा सॉरी। पहनो जो तुम्हारा दिल करे। हू एम आई टु इंटरफियर?
इट्स ओके। लेट्स गो देट साइड ऑफ द पालोलिम बीच। उधर कोई लोग भी नहीं है।
चलो।

देखो इधर। कितनी सुंदर रेत है यहाँ पर। मैं हमारा नाम लिखती हूँ इस रेत पर।
लहरें मिटा देंगी नाम को।
क्या बुराई है ‘एक दूजे के लिए’ मिटने में। फिर अमर भी तो हो जाएंगे। रति अग्निहोत्री और कमल हासन की तरह।
अच्छा लिखो।
लुक, हाउ गुड इट इज़ लुकिंग? टेक अ स्नेप बिफोर द वेव्ज़ कम। और बहा ले जाए हमारा प्यार, सागर की गहराई में सदा के लिए सहेज कर रखने को।
देखूँ तो क्या लिखा है? सिमरन लव्स राज। पर ये तो अपने नाम नहीं हैं!
क्या फ़र्क़ पड़ता है, राज़?
शायद सच कह रही हो तुम, सिमरन!

(c)अजीतपाल सिंह दैया

Monday, September 21, 2015

यह है प्रेम

कहा था न मैंने
मत आना मेरे पास
पर तुम कहाँ मानीं
नहीं, मुझे समझ नहीं आती है
पढ़ाओगे तो तुम्हीं
और किसी को कहाँ आती है
लिनियर एलजेब्रा
इस मुहल्ले में।
और हुआ क्या,
न कभी तुम पढ़ पायी
और न मैं कभी पढ़ा पाया
बल्कि बाकी थी गणित जो मुझमें
खो गयी कहीं
तुम्हारे कंगनों की खनखनाहट
और होठों की तबस्सुम में।
आखिर में जो हुआ,
न मैं चाहता था
और शायद न तुमने चाहा होगा।
सितंबर के लौटते मानसून की
रिमझिम बरसातें,
तुम प्याज़ के पकोड़े तल रही
अपने किचन में,
चाय की चुसकियाँ ले रहा मैं
बॉलकोनी में बैठकर।
अरे, डोरबेल बजी है
बबली आ गयी है शायद
पाँचवी का इम्तिहान देकर।

(c)अजीतपाल सिंह दैया