Saturday, September 3, 2011

'पुनर्जन्म'

नाम शराफत अली था
उसी ने लगाई थी
दंगों के वक्त
मंदिर में आग .
एक दिन मर गया वह .
कमबख्त
आज उसी मंदिर की
मुंडेर पर आशियाना बना रहा है
कबूतर बनकर .
आप सोच रहे हो कि
मुझे यह किसने बताया
ज़नाब,
शराफत अली मैं ही था .
-- ajit pal singh daia

Tuesday, August 30, 2011

प्रेमपत्र-3

यह मेरा प्रेमपत्र पढ़कर
तुम नाराज़ हो गयी ,
खुद नहीं आए हम
अब के सावन में
हम से यह खता हो गयी ,
बस एक सफहे पर
एक नन्ही नज़्म लिखकर
खत कर दिया था रुखसत ,
मुझे तुम्हारी बुदबुदाहट
सुनाई दे रही है प्रिये
'कमबख्त पिया ,तुम्हें
हमारे लिए नहीं है फुर्सत ।'
ओह !
लफ्ज मेरी नज़्म के
जलकर राख हो रहें हैं,
ज़रा मोहब्बत से पढ़ो ए जानशी 
आंखों में गुस्से की 
इतनी आग ठीक नहीं ..........
-- अजीत पाल सिंह दैया  

Sunday, August 28, 2011

प्रेमपत्र -2

उस रात
मैं छत पर बैठे हुए
चाँद से बतियाते रहा
सारी रात ।
सुनो चाँद ,
मेरी प्रिया निराली सी है
नमकीन चाय की प्याली सी है
मेरी प्रिया भोली सी है
पोदीने की गोली सी है ।
वह चित-चोरनी
सावन में पंख फैलाकर
नाचती हुई मोरनी ।
वह जब लहराती है
अपने खुले बाल
घटाएँ शरमाकर
हो जाती हैं ओझल,
उसके होंठ गुलाब की
पंखुरियों से कोमल ,
मैंने अक्सर देखा है 
तितलियों को मँडराते 
उसके इर्दगिर्द ।
वह चहकती है ऐसे 
भोर भए ज्यों करे 
पंछी कलरव ,
उसकी आँखों में जादू 
काली बदली की 
सुरमेदानी से ज्यों 
लगाया हो चुराकर सुरमा। 
चाँद, में क्या कहूँ ....कितना कहूँ ....
तुम खुद ही देखना 
मेरी प्रिया को   ....
उसने वादा किया है
आज की रात
मुझसे मिलने का ।
चाँद , वो आती ही होगी
तुम सोना नहीं
जागे रहना मेरे साथ
करते रहो मुझसे बातें
मेरे और मेरी प्रिया के
बारे में ।
ए रात , तुम ठहरो अभी
लम्हा लम्हा रहो मेरे साथ
मेरी प्रिया आएगी
आज की रात ।
रात ,चाँद और मैं
तीनों जगे रहे ...
जगे रहे जगे रहे ...
आखिर रात ने कहा- मैं चली 
चाँद ने कहा - मैं चला 
और मेरी आँख लग गई ।
दिन चढ़े ,
सूरज ने जगाया मुझे 
और कहा --
'सुनो ,
 नदी में  बहा रही  
एक लड़की
प्रेमपत्र !!!!!!
-- अजीतपाल सिंह दैया

'रेगिस्तान के रंग'

रेतीले टीबों पर वातोर्मियाँ
जैसे प्रकृति ने लिखी हैं कवितायेँ
मदोंमत कर रही हैं
चांदनी रात में ये शीतल हवाएं .
ज़िन्दगी के गम से गीन
यूँ न मायूस हो सखी
चल आ ,खड़ी हो
उम्मीद के गीत गुनगुनाएं
होठों पर मुस्कराहट बिखेर
आ नाचें 'घूमर' हम तुम
जगाएं हृदय में नई उमंग
और घोल दें रेगिस्तान में रंग.
- अजीत पाल सिंह दैया

प्रेमपत्र-1

शाम को
दफ्तर से घर लौटा तो
देखा अपने स्टडी रूम को अस्त-व्यस्त
अलमारी में किताबें
पड़ीं थी बेतरतीब व
कुछ गिरी पडीं थीं
ज़मीन पर
टेबल पर बिखरी पडीं थीं डायरियां
दराज़ में मची थीं उथल- पुथल
मैं हैरान -परेशान
कौन  चोर घुसा होगा यहाँ
माँ को आवाज़ दी मैंने -
'माँ , मेरे कमरे में आया था
क्या कोई ?"
माँ रसोई से ऊँची आवाज़ में बोली-
'शायद वो ही आयी होगी
तुम्हारे बारे में पूछ रही थी
आज दुपहर में .'
तभी मुझे नज़र आया
पेपरवेट के नीचे दबा एक पुरजा
जिस  पर लिखा था मात्र एक शब्द
-"खुदा -हाफिज़"
और ..
वह ले गयी बटोर कर
अपने सारे प्रेमपत्र !!!
--- अजीत पाल सिंह दैया

Monday, August 22, 2011

'धूप'

सदियों से तड़प रहा हूँ मैं
केवल एक टुकड़ा धूप के लिए
मुझे घोर आश्चर्य है कि
इतने लम्बे इंतजार के बाद भी
मेरा घर धूप से महरूम है !
मेरे घर के सारे दरीचे दरवाजे
हमेशा से ही खुले हुए हैं .
टाट के परदे भी नहीं लगाये हैं मैंने
दीवार की जगह भी खाली   रखी है मैंने
तो कमरों की छत भी खोल रखी है मैंने
पता नहीं किस तरफ से
एक टुकड़ा धूप आ जाये मेरे घर में .

आश्चर्य की बात है
इतने जतन के बाद भी
मैं आज तक तरस रहा हूँ
एक टुकड़ा धूप के लिए .
सूरज पर मेरा विश्वास  अडिग है
कभी मन में संदेह नहीं हुआ कि
सूरज मेरे प्रति दुभांत रखता है
उसी ने वंचित कर रखा है मुझे
एक टुकड़ा धूप से
कोई साजिश रचकर .

नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए
नहीं यह नहीं हो सकता
हरगिज़ नहीं हो सकता .
उसने तो ज़रूर रखा होगा
एक टुकड़ा धूप मेरे घर के लिए
और ज़रूर भेज दिया होगा
किरण के साथ .
कही किरण तो विश्वासघातिनी नहीं
हो सकता हो मेरा एक टुकड़ा धूप का
दे आयी हो किसी और को वह .

ओह ! सड़क के उस पर
वह अट्टालिका इतनी दीप्त है !
देखूं तो ज़रा
यह क्या ?
उस कनक महल के रेशमी पर्दों के पीछे
कडवा सच नज़र आता है .
सूरज तो शायद निर्दोष हो
पर सचमुच
यह किरण का विश्वासघात है
मेरा एक टुकड़ा धूप
उस भव्य अट्टालिका में कैद है.

- अजीत पाल सिंह दैया

Saturday, August 13, 2011

'वह तुम हो'

दरख्तों के कुञ्ज में
पल्लवों के छत्रक से
छन-छन कर जब
किरण मुझसे खेलती है
लुकाछीपी
तो लगता है वह तुम हो.
तुहिन कणों से सजल
नरम नरम मृदुल दूर्वा
जब बिछ जाती है
मेरी पलकों की स्वप्न सेज पर
तो लगता है वह तुम हो.
चाँद से छिटककर
जब शुभ्र ज्योत्स्ना
लिपट कर मुझसे
जगा देती है सिहरन सी
तो लगता है वह तुम हो.
गिरी के अंकोर में
सौम्य सलिला झील के
निस्तब्ध स्वच्छ नीर में
जब शशि का बिम्ब
हँसता है
तो लगता है वह तुम हो.
रात की रानी से
महक चुराकर आती
भीनी भीनी सुरभित हवा
जब चूमती है
मेरे कपोलों को
तो लगता है वह तुम हो.
--APSD

Friday, July 15, 2011

रंगीन ज़िंदगी


तमाम सफहे मेरी डायरी के
फड़फड़ाकर उड़ने लगे
आसमां में ।
लोगों ने कहा -
' अहा , पतंग महोत्सव है !'
मैंने कहा -
' कमबख्त हवा ,
मुझे आज मालूम हुआ
कितनी रंगीन थी
ज़िंदगी !!!'
- अजीतपाल सिंह दैया

Saturday, June 11, 2011

एक आदिवासी युवती

पिपरिया से छिंदवाड़ा की ओर आते वक्त
मैं गुजर रहा था
तामिया के पास
एक आदिवासी गाँव से ,
सड़क पर रह चलती
एक आदिवासी युवती को
देखकर मैंने रोकी अपनी गाड़ी ।
अपने समीप एक कार को
रुकी देख अचानक से
सकपका गयी वह
तुरंत से हटी पीछे ढाई कदम
और देखने लगी मुझे
भय मिश्रित विस्मय से ।


गहरे तांबई रंग का गठीला बदन
घनी भौहें ,उलझे बाल और उन्नत भाल ,
सर पर धरी थी
जलावन की छोटी ढेरी ।
मैंने कहा – सुनो ,
छिंदवाड़ा जाने का रास्ता किधर है ?
उसने अपनी नज़र
अपने उभारों पर डाली
और हड़बड़ी में
अपने वक्षस्थल को पोमचे से
ठीक से ढकते हुए बोली –
‘ऊ ही रस्ता है बाबू .......”


मैंने अपना चश्मा उतार कर
हल्का सा मुस्कुराया ,
आदिवासी युवती के गेरुएँ होठों के बीच
श्वेत दंतावली के साथ
बिजली सी मुस्कान कौंधी ।
मैंने कहा –‘थेंक यू “
और अपना हाथ हिलाकर
उसका अभिवादन करते हुए
बढ़ा लिया गाड़ी को आगे ।
आदिवासी युवती की आँखों में
जिज्ञासा जन्मी
जाने वह क्या समझी
वह हल्के से होंठ चबाकर
हंस दी खिलखिलाकर
और करती रही अभिवादन
अपने हाथों को लगातार हिलाकर ।
मैं देखता रहा उसको
मिरर के रिवर्स व्यू में
जब तलक औझल न हो गयी वह !!!!!                          -अजीत पाल सिंह दैया

Friday, June 10, 2011

मक़बूल फिदा हुसैन

तेज़ तूफान के बाद
गिर गया एक बूढ़ा दरख़्त,
बारिश थमने के बाद
आसमान साफ था
और ढलते सूर्य की
विपरीत दिशा मे
नज़र आ रहा था
एक इंद्रधनुष ।
आम दिनों की तरह
आज के इस इंद्रधनुष मे
रौनक नहीं थीं ,
उदासी छन छन कर
बिखर रही थीं,
और तमाम रंग फीके
नज़र आ रहे थे ।
धीरे धीरे मैंने देखा
कि एक एक कर
सभी रंग हो गए गायब ।
अटलांटिक समुद्र से
एक अबाबील उड़ते उड़ते आई ,
उसने मुझे बताया
कि तमाम सात रंग
एक कब्र पर
फातिहा पढ़ते पाये गए हैं।
- अजीतपाल सिंह दैया

Sunday, March 20, 2011

किरण

हर सुबह
खिड़कियों से
दाखिल होकर
मेरे कमरे में
किरण ,
समेट कर
रजनी की रजाई
मेरी पलकों पर
हल्का सा
चुम्बन  देकर
खींच लाती है
मुझे सपनों की
वादियों से बाहर .

-APSD

Monday, March 7, 2011

नारी से

घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
आज जगत में विष व्यापा है
भाग-दौड़ आपा-धापा है
आज विश्व में और मनुज में
दुःख उमड़े हैं ज्वार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
कोई मनु है बीच भंवर
नौका है ,पर बिन धीवर
कामायनी तट पर पहुंचा दो
श्रद्धा की पतवार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
पीलो प्याला भरा गरल
विष अमृत में जाय बदल
मीरा ,विक्रम को दिखला दो
पुष्प हार बना सर्प हार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
वनवास मिला है फिर राम को
छोड़ चले सुख धाम को
सीता ,कंकर के भूषण
स्वीकार करो मुक्ता-हार  से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
आवश्यकता हुई वीरांगना
उतर फेंको कर से कंगना
रिपु दमन कर दो लक्ष्मी
अपनी पराक्रमी तलवार से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
आज उठा है बनवीर निर्दय
संकट में है सिंह उदय
पन्ना चन्दन को अमर करो
धर्म की कटार  से .
घृणा को पिघला कर रख दो
नारी अपने प्यार से .....!
- अजीतपाल  सिंह दैया

Saturday, March 5, 2011

"द गर्ल विद ब्लू आईज़"

अल्बर्ट हॉल के
ठीक सामने वाली रोड के किनारे
गुल मोहर के एक बूढ़े दरख़्त के नीचे
एक टूटी हुई बेंच
जिस पर पुते हरे रंग की
पपड़ियाँ उखड चली थीं ,
पर बैठ कर
उसे रोज़ देखना
मेरा शगल था ,
अल सुबह
वह हमेशा ही आया करतीं थी
एक कटोरी ज्वार लेकर
और शिद्दत से फेंका करती थी
कबूतरों को दाना ,
कबूतरों का दल भी
शायद आशना हो गया था
उसके पदचापों का
कि उसके आने की आहट मात्र से
खींचे चले आते थे उसकी जानिब
बिला संकोच , निडर से
वे नीले नीले कबूतर
और उसका नीला दुपट्टा
अरे हाँ ,मैंने तो उसे
हमेशा ही उसी नीले दुपट्टे में देखा था ,
पता नहीं उसके पास
एक वही दुपट्टा था या
उसी रंग के कई दुपट्टे.
मैंने ऐसा महसूस किया था
कि उसे नीले रंग से प्यार था,
नीला दुपट्टा ,नीली चूड़ियाँ
और नीले कबूतर
और फिर मैंने रोज़ ही
देखा था उसे ,
कबूतरों को पूरे दाने 
फेंकने के बाद 
अल्बर्ट हॉल की पृष्ठ भूमि में 
नीले नीले आसमान को कुछ मिनटों तक
लगातार निहारना ,
पता नहीं क्यूं ,
पर में पूरे विश्वास से 
कह सकता हूँ 
कि उस वक्त भी वह 
अल्बर्ट हॉल को नहीं ,
नीले आसमान को निहार रही होती थीं.
एक दिन जाने कहाँ से 
मुझ में हिम्मत आई 
वरना मैं तो हमेशा से ही रहा हूँ 
दब्बू -संकोची किस्म का ,
हाँ एक दिन 
मैंने उसके पास जाकर कहा -
"तुम शायद मुझे नहीं जानती 
पर ..पर ...फिर भी 
मेरी तरफ से यह ...
तुम्हारे खुले बालों को 
तुम इस से बांधना
बहुत खूबसूरत लगोगी " 
मेरे हाथों से नीला रिबन लेते हुए
उसने कहा -
"गुल मोहर वाले लड़के
मैं तुम्हे जानती हूँ.."
सिर्फ इतना कह कर
तेज़ क़दमों से चली गयी वह
रामनिवास बाग के मेन गेट की तरफ .
अगले दिन सुबह
जब वह कबूतरों को
चुग्गा डालने आई
तो उसके बालों में
बंधा हुआ था नीला रिबन.
कुछ देर बाद जब
वह खिला चुकी थी दाने कबूतरों को
तो तेज़ क़दमों से मेरी तरफ बढ़ी ,
उसे इतनी तेज़ी से मेरी तरफ
आते देख मैं सहसा सहम गया ,
मेरे पास आकर उसने
अपने दुपट्टे में छुपाया हुआ
एक पैकेट निकल कर मुझे थमाया
और बोली -
"शुक्रिया ,गुलमोहर वाले लड़के "
और मुस्कुराते हुए चल दी मेनगेट की तरफ,
मैं उसे तब तक देखता रहा 
जब तक उसके काले बालों पर बंधा 
नीला रिबन ओझल न हो गया .
मैंने  नीले रिबन से बंधे उस पैकेट को
खोल कर देखा -
उसमें नीले कवर वाली
एक खूबसूरत डायरी थी
तथा था एक अंग्रेजी उपन्यास
"द गर्ल विद ब्लू आईज़"
उस दिन के बाद
फिर कभी मुझे
दिखायी नहीं दी
नीली आँखोंवाली वह लड़की .....
@अजीत पाल सिंह दैया

Sunday, February 20, 2011

मैंने चिर साधना की है

मैंने चिर साधना की है 
युग भारित कण कण जम
मैं आज महापाषाण हुई ,
काल कुठाराघात सहकर
संजीवन थी निष्प्राण हुई .
 
निष्प्राण सही ,साकार बनूँ
सिर्फ तेरा आकार बनूँ
मैंने यही प्रार्थना की है .
मैंने चिर साधना की है .
 
गर्वित हिम खंड खंड हो
करुणा प्रवाह में बह गया,
उत्तुंग शिखर चूर चूर हो
रेती बनकर रह गया .
 
इस रेती में पद चाप बने
हृदय स्पंदन का ताप बने
मैंने यही आराधना की है .
मैंने चिर साधना की है .
 
तपस्विनी मैं ,प्रतीक्षा में तपकर
पिघल गयी हूँ नीर होकर ,
रेंगती रही सर्पिल पथ पर
विरहिणी मैं ,अधीर होकर
.
 
ढूंढ रही हूँ अंकोर तेरी
जिसमें विलीन हो रूह मेरी
मैंने यही वंदना की है .
मैंने चिर साधना की है.
 

-अजीत पाल सिंह दैया

अधीर हृदय पर मूक अधर

तड़प मेरी फूलों में घुलकर
महक रही है मधुमय होकर ,
भ्रमर प्रतीक्षा कब तक होगी
डरती क्षण क्षण सिहर सिहर.
मेरे हृदय स्पंदन को छूकर
स्नेह आवेगों की ऊष्मा पाकर ,
समीरण सन्देश तो लाया होगा
उबल रही है मन की लहर .
विरह का मधु आसव पीकर
फिर लज्जालु होठों को सीकर ,
धधक रही अंतस की ज्वाला
उग्र हो रही है मंथर मंथर .
ढूंढ रही मैं सुध बुध खोकर
नयनों को अश्रु से धोकर ,
केवल बिम्ब तुम्हारा दीखता
मेरी पड़ रही है दृष्टि जिधर .
मन हल्का हो अंतस को कहकर
पीड़ा को शब्दों में पिरोकर ,
जाने क्यों मैं इतनी विवश
अधीर हृदय पर मूक अधर .
-अजीत पाल सिंह दैया