Saturday, June 16, 2012

नियति


कैनवास पर जब मेरी तस्वीर
धुंधली होने लगेगी तो
मुझे पता है तुम मुझे भूल जाओगी ,
दरख्त की शाखों से छिटक कर
जब पीला पत्ता जमीन पर गिरा
तो किसने परवाह की है उसकी ,
कब तलक मैं ताज़ा फूल बनकर
तुम्हारी वेणी को सजाता रहूँगा
एक रोज़ जब तुम भी
वेणी गूंथना छोड़ दोगी तो
मैं तो पहले ही मुरझा चुका होऊंगा ,
कितने बरस जंग लगे लोहे के बक्से में
पीले पड़ते  रहेंगे पत्ते ,
ऊब चुके होंगे उन पन्नों पर
लिखी मेरी नज़्मों को
हजारों बार पढ़ते पढ़ते काकरोच,
 फिर तो शायद कोई रद्दी वाला भी
नहीं खरीदेगा उन किताबों को
और तुम भी कब तक ज़बानी याद रखोगी
मेरी नज़्मों को ,
तुम्हें भूलना ही होगा  उनको
तुम्हारी याददाश्त तो सीमित है
पुरानी को भूले बगैर
तुम कैसे याद कर पाओगी
नए जमाने की नई कविताओं को !
मुझे पता है
तुम मुझे भूल जाओगी
पर फिर भी इतना तो ज़रूर कहूँगा
की शायद फिर उगूँगा
किसी उर्वर ज़मीन पर
संभव है
तुम मुझे फिर से पहचान लोगी
उन लम्हों की गंध से
जो बाकी होंगे किन्हीं कोने में
तुम्हारी स्मृति के ।
-- अजीतपाल सिंह दैया