तबादले सरकारी मुलाजिमों की फितरत
होती है। वक़्त बेवक़्त तबादले होते रहते हैं और सरकारी मुलाजिम इस बात से शिद्दत से
वाकिफ़ होते हैं। कुछ इन तबादलों को बोझ या दंड स्वरूप लेते हैं पर सकारात्मक सोच
वालों के लिए तो तबादले किसी वरदान से कम नहीं होते । तबादले के बहाने जब आप किसी
नए शहर में जा बसते हो तो वहाँ के लोगों,जनजीवन एवं सभ्यता को जानने के नए मौके मयस्सर होते
हैं। अजयसिंह भी कुछ इसी टाइप का शख़्स था जो अपने वक़्त बेवक्त के तबादलों को तहे
दिल से लेता था और हर वक़्त कहीं भी जाने को तैयार रहता था। उसे लगता था कि तबादले
देश दुनिया को समझने के बेहतरीन मौके होते हैं जिन्हें निश्चय ही भुनाया जाना
चाहिए। अजयसिंह आयकर विभाग में ऊंचे ओहदे पर कार्यरत था। उनके व्यक्तिगत स्वभाव या
किन्हीं अन्य प्रशासनिक कारणों से उनके तबादलों की तादाद सामान्य से कहीं ज़्यादा
रही है।
इस बार अजयसिंह का तबादला
मध्यप्रदेश के एक दूरदराज़ के ग्रामीण अंचल में हो गया था। उनका मुख्यालय छिंदवाड़ा
में था और उनके ज्यूरिस्डिक्सन में छिंदवाड़ा,सिवनी तथा बालाघाट तीन जिले पड़ते थे। यह क्षेत्र
प्रायः सतपुड़ा के पठार में पड़ता है। आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में विकास की किरणों
के दर्शन दुर्लभ हैं। यूं तो सरकार इस इलाके के विकास के लिए एक मोटा बजट रखती है पर इस बजट का कितना
हिस्सा वास्तविक विकास में लगता है और कितना सरकरी अफसरों और नेताओं के निजी विकास
पर, यह तो इस क्षेत्र का एक बार विहंगम दृश्य देखकर ही समझा जा
सकता है। खैर, अजयसिंह को इससे क्या?
उनका सम्बन्ध ‘प्रत्यक्ष कर’ से तो है पर ‘प्रत्यक्ष विकास’
से नहीं। संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा की परीक्षा में सामान्य अध्ययन के दूसरे
पर्चे में दस अंक भी ज़्यादा आते तो शायद अजयसिंह का भी संबंध प्रत्यक्ष विकास से
हो जाता। पर अजयसिंह खुश था कि वह भारतीय राजस्व सेवा में था और अपने दिल को बहला
लेता था कि आई ए एस बनकर कम से कम वे सरकारी विकास योजनाओं का धन जोंक बन कर न चूस
रहे होता। उनका पाला तो ‘इलीट
क्लास’
से पड़ता है। न उनकी कोई घेरा बंदी करता है, न
स्कूलों के मध्याह्न भोजन के दलियों में इल्लियां होने का जवाब देना पड़ता है। न
ग्रामीण महिलाओं को नसबंदी के लिए प्रेरित करने के लिए केंप करने पड़ते है। देश की
जनसंख्या बढे तो बढे उनकी बला से, उन्हें क्या फरक पड़ता है। और न ही नगरीय महिलाएं
गर्मियों में पानी की किल्लत होने पर उनके दफ़्तर के बाहर मटकियाँ फोड़ने आती हैं।
अजयसिंह वाबस्ता होते था तो शहर की हाई
फ़ाई जेंटरी से। चार्टर्ड अकाउंटेंट, टेक्स एडवोकेट, इंकम टेक्स प्रेक्टिशनर्स
और कभी कभार बड़े बड़े उद्योगपति उनके दफ़्तर के
चक्कर लगाते थे। दफ़्तर में न केवल आयकर बल्कि इससे इतर भी जैसे डेव्लपमेंट,
टू जी थ्री जी, कॉमन वेल्थ घोटाला, अन्ना हज़ारे का एंटी
करप्शन अनशन, वर्ल्ड कप फाइनल में महेंद्र सिंह धोनी की कप्तानी
पारी पर ईलीट डिस्कसन हो जाता था। न केवल यह बल्कि कभी कभी तो राखी सावंत या दबंग
की मुन्नी, वोही अपने सलमान की भाभी जिसका असली नाम अभी ज़ुबान
पर नहीं आ रहा है, उनके डिस्कसन के केन्द्रबिन्दु हो जाते थे।
खैर छोड़ो यह सब और अब बात करते हैं अजयसिंह की पत्नी की।
वैसे तो मोटे तौर पर सभी ऊंचे ओहदे वाले अफसरों की बीवियाँ एक सरीखी ही तो होती
हैं। अजयसिंह की पत्नी सोनल भी कोई ज़ुदा नहीं थीं। सोनल पश्चिमी राजस्थान के एक
दूर दराज़ के गाँव से ताल्लुक रखती थी। पढ़ाई
लिखाई कुछ ख़ास नहीं पर शक्ल सूरत से कुछ आकर्षक जान पड़ती थी। दरम्याना कद पर गोरे
रंग वाली सोनल के मन में यह बात घर कर गयी थी कि यह अजयसिंह की खुशनसीबी थी कि
उन्हें उसके जैसी खूबसूरत पत्नी प्राप्त हुई थीं। वह खासकर ऐसा इसलिए भी सोचती थी
क्यूंकि अजयसिंह का व्यक्तित्व कुछ ख़ास आकर्षक नहीं था। वह तो किसी भी एंगल से
राजस्थान के राजपूत नहीं लगते बल्कि यूं कहें कि उनके चेहरे मोहरे से तो पक्का
मद्रासीपन टपकता था। महिलाओं द्वारा सोनल को पूछे जाने वाले सवालों में सबसे
पोपुलर सवाल प्रायः यही होता था कि क्या उसका पति साउथ इंडियन है?
और यह भी सवाल कम और अफरमेटिव वाक्य ही होता था जो मात्र फेक्ट की सहमति यानि
कन्फर्मेशन के लिए ही पूछा जाता था। इसके
उत्तर में ना सुनने वालों को गहरी निराशा होती थीं और सोनल को क्षोभ कि राजस्थान में
आखिर अजयसिंह क्यों पैदा हो गया। कभी कभी तो सोनल को इतनी कोफ्त होती थी कि कह ही
दे पूछने वाले को कि हाँ उसके पति मदुरै के हैं आदि आदि। कभी कभी तो वह यहाँ तक
सोचती थी कि अजयसिंह को दिल्ली के इंटरव्यू में कैसे पास कर दिया गया वरना आदमी तो
चेन्नई के मरीना बीच पर कोकोनट वाटर बेचने के ही ज़्यादा लायक है।
तो सोनल अपने पति के साथ छिंदवाड़ा
आ गई। जयपुर जैसे बड़े शहर से एकदम छोटे शहर बल्कि यूं कहें कि एक बड़े गाँव में आ
जाना उसे बेहद अखर रहा था। किन्तु वह कर भी क्या सकती थी? यह
अलग बात है कि शादी से पहले तक का उसका सारा जीवन तहसील लेवल के एक छोटे से कस्बे
में ही गुजरा था। बी. ए. की परीक्षा भी उसने अपने
गाँव से ही प्राइवेट देकर जैसे तैसे पास कर ली थी। यहाँ छिंदवाड़ा में आयकर विभाग इन्फ्रा
स्ट्रक्चर मोहताज था। विभाग का ऑफिस भी एक प्राइवेट बिल्डिंग में चल रहा था तो
इंकम टेक्स कॉलोनी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था?
सी ग्रेड का सिटी और हाउस रेंट अलाउंस मात्र दस परसेंट जो कुल जमा दो हज़ार दो सौ से ज़्यादा नहीं बैठता
था। किन्तु महंगाई माशा अल्लाह! अच्छा बंगलानुमा घर लेना मतलब पाँच छह हज़ार कम से
कम और अजयसिंह एच.आर.ए. से कहीं ज़्यादा खर्च करने के मूड में कतई नहीं था। अतः
उसने हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी में एक छोटा सा घर किराए पर ले लिया था। सोनल अपने नए
घर को देखकर विशेष उत्साहित नहीं हुई बल्कि उसकी प्रथम प्रतिक्रिया तो उदासीनता का
आवरण ओढ़े ही नज़र आई। लेकिन एक महिला को नए वातावरण में ढलने में कब वक़्त लगता है?
एक महिला जब दूसरी महिला से मिलती है तो मिलने भर तक के लिए अजनबी रहती है वरना
मिलने के बाद तो मिनटों में यह अजनबीपन
काफ़ूर हो जाता है। नए शहर में अपने नए घर में पदार्पण के कुछ देर बाद ही सोनल ने
अजयसिंह को सूचना दी –“ सुनो जी,
अपने घर के पिछवाड़े में एक जे. ई. एन. रहता है। शायद पी. डब्ल्यू. डी. में काम
करता है। पूजा नाम है उसका...”
“जे. ई.
एन. का ?” अजयसिंह ने टोका।
“नहीं जे. ई. एन. का नहीं उसकी वाइफ का .... अच्छी लड़की है,
मेरे से दो साल छोटी है। उसका पति भी आपसे छोटा ही होगा। यहीं एम पी की है। शायद
जबलपुर में उसका मायका है। उसके भाई का वहाँ पॉल्ट्री फार्म है। कह रही थी
छिंदवाड़ा काफी शांत जगह है। वे लोग तो पाँच साल से इसी मकान में रह रहे हैं। चलो
मेरा भी टाइम पास अच्छा होगा। एक स्कूटी भी है उनके पास। वह कह रही थे उसे तो कार चलाना
भी आता है। सुनो...आप भी कार चलाना सीख लो न .....” सोनल नॉनस्टॉप कहे जा रही थी।
पर अजयसिंह को उसकी बातों में कोई ख़ास रुचि नहीं थी। वह हूँ हूँ करता रहा। उसका
ध्यान तो लैपटाप पर अपने ई मेल चेक करने में ज़्यादा था। सोनल अपने पति को उसकी
बातों को गंभीरता से न लेने व लैपटाप में खोये रहने की वजह से उखड़ गईं।
“इंटरनेट पर मद्रासी हीरोइनों के
फोटू देखने के अलावा कोई काम है आपको। जब देखो तब परायी औरतों को ताकते रहते
हो...” सोनल तड़क कर बोली और पैर पटकते हुई किचन में चली गयी।
“चाय बना रही हूँ....आपको पीनी है
क्या?” सोनल किचन से ही चीख कर बोली। अजय सिंह ने धीरे से “हूँ” कहा
और अपने लैपटाप में बिज़ी रहा।
अजयसिंह अपनी पत्नी और बच्चे को
छिंदवाड़ा तबादला होने के लगभग दो महीने बाद लाया था। इन दो महीनों में उसे कुछ
मालूम नहीं था कि उसके पड़ौस में कौन रहता है और कौन नहीं?
और न ही उसने यह जानने की कोशिश ही की थी। किन्तु उसकी पत्नी ने उसे दो चार दिन
में ही पूरे आसपास से परिचित करा दिया था। अजयसिंह के दाहिने पड़ौस में एक
आर्किटेक्ट या सिविल इंजीनियर का घर था। उसका सत्कार चौराहे पर मानसरोवर
कॉम्प्लेक्स में प्राइवेट ऑफिस था। मकानों के नक्शे और डिज़ाइन बनाना उसका मूल काम
था। बाईं तरफ के मकान में एक मोटर मेकेनिक की फेमिली रहती थीं। सोनल ने अपने पति
को बताया कि उन्होने अभी अभी एक सेकंड हेंड वेन ख़रीदी है और उसमें महंगा म्यूजिक
सिस्टम लगाया है। अजयसिंह के घर के एकदम के सामने के मकान में एक डॉक्टर और उसका
परिवार रहता था। डॉक्टर स्थानीय राजकीय चिकित्सालय में नेत्र चिकित्सक था। उसकी
अठारह उन्नीस बरस की लड़की कोई इंटिरियर डिज़ाइन को कोर्स कर रही थी और उसका बड़ा
बेटा नागपुर के एक मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। और उन डॉक्टर के
बाजू वाले मकान में एक तलाक़शुदा प्रौढ़ महिला अपने दो बच्चों के साथ रहती थी। उस
महिला के लिए प्रौढ़ शब्द शायद उचित नहीं है। वय से वह महिला चालीस से एक आध साल कम
की ही जान पड़ती थी पर थी बड़ी आकर्षक। सोनल ने अपने पति को चेताया- “सुनो,
आप मेन गेट पर ज़्यादा मत खड़े रहा करो....” “हूँ....” अजयसिंह ने हामी भरी। पर पूजा
सबसे जुदा। सोनल की ख़ास सहेली बन चुकी थी। अजयसिंह के मकान का पिछवाड़ा और पूजा के
मकान का पिछवाड़ा केवल एक दो फीट ऊंची एक ईंट चौड़ी पैरापेट वालनुमा
छोटी दीवार से अलग था। असल में अजयसिंह के बेडरूम की एक खिड़की तथा किचन का बेकडोर
इसी पिछली तरफ खुलता था और इस ओर थोड़ी ज़मीन खुली छोड़ी गयी थी। पूजा के मकान की
बनावट भी ठीक ऐसी ही थी। घर गृहस्थी के कामकाज में एक महिला का ज़्यादातर वक़्त किचन
के इर्दगिर्द ही गुजरता है। यही कुछ हाल सोनल और पूजा के साथ था। अपना अपना कामकाज
करते दोनों अच्छे से बतियाते रहती थी। दोनों के बीच एक कॉमन फेक्टर जाड़ू पौछा करने
वाली बाई भी थी। सोनल अक्सर अजयसिंह से कहा करती थी- “सुनो,
ये बाई स्साली ऐसी ही है, पूजा के घर तो सब काम करती है पर अपने यहाँ...
पूजा उसे रोज़ रोज़ चाय पिलाती है...” “तो तुम भी पीला दिया करो....” अजयसिंह गुलटे
डॉटकॉम पर तेलुगू अभिनेत्री काजल अग्रवाल के वालपेपर सर्फ करते हुए बोला।
“सुनो जी,
खिड़की के बाहर देखो तो ...” एक रोज़ सोनल ने अजयसिंह को कहा।
“हूँ...”
“केवल हूँ हूँ ही करते रहेगो या
बाहर देखोगे भी...” सोनल ने तल्खी से कहा। अजयसिंह ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा। पिछवाड़े की दीवार के पास कोने में एक
खूबसूरत लाल गुलाब खिला हुआ था।
“हूँ... सुंदर है...” अजयसिंह ने
संक्षिप्त टिप्पणी की।
“पता है, यह
गुलाब का पौधा पांडे जी ने लगाया था। पूजा कह रही थी.....” सोनल ने विस्तार से
बताना शुरू कर दिया।
“कौन पांडे जी ?”
“अरे, हमारे से पहले इस मकान में पांडेजी रहते थे। पूजा
कहती है वो तो ज़्यादातर बाहर ही रहते थे। पीछे उनकी पत्नी तथा दो लड़कियां कई कई
दिनों तक अकेले रहती थी। बंगाली थे वे लोग। पूजा कहती है कि बंगाली लोग बड़े गंदे
होते हैं। वे भी काफी गंदे रहते थे। तुम देख रहे हो न अपना किचन कितना गंदा था। यह
कमबख़्त बाई तो ढंग से सफाई करती ही है। मैंने ही रगड़ रगड़ कर किचन साफ किया था। अब
देखो, अपना किचन कितना चमक रहा है। और बाथरूम तो ऐसा था कि अंदर
घुसने को जी न करे, नहाना तो दूर की बात। बाथरूम के कोने में पान थूक
थूक कर पब्लिक टॉइलेट से बदतर बना दिया था कमबख़्त बंगालियों ने। सुनो जी,
अपने ऑफिस के सफाई वाले को
भेज दो न ... ज़रा अच्छे से बाथरूम
साफ कर देगा। इस बाई को कहा था पर कमबख़्त इतनी बेशर्म है कि साफ मना कर दिया....”
सोनल का टॉक शो चल रहा था।
“ऑफिस का चपरासी तुम्हारे घर के
काम के लिए नहीं है सोनल....” अजयसिंह बुदबुदाया।
“एस. डी. एम. के घर तीन तीन
चपरासी काम करते हैं और एक तुम हो कि....” सोनल बोली।
“हूँ...” अजयसिंह ने इतना भर कहा।
“तुम्हें तेलुगू तमिल हीरोइनों से
फुर्सत मिले तो न ... भावना, नयनतारा, त्रिशा, जेनेलिया और वोह मुई तमन्ना... हूँ! कभी मेरे अभि
का स्केच भी नहीं बनाया .... हुंह....” सोनल मुंह बनाकर किचन में चली गयी।
कुछ देर बाद सोनल फिर से बेडरूम
में लौटी और बोली –“अजय,
तुमने गुलाब का फूल तौड़ा क्या?”
अजयसिंह कुछ नहीं बोला। अपनी बात
को अनसुनी किया जान कर सोनल लगभग चीखते हुए बोली- “अजय,
मैं तुमसे पूछ रही हूँ, तुमने पीछे से गुलाब का फूल तौड़ा क्या?”
“नहीं,
तुम जल्दी से ब्रेकफ़ास्ट लगाओ। पौने ग्यारह हो चुके हैं। ऑफिस के लिए देर हो रही
है...” अजयसिंह ने कहा।
“हाँ,
अभी लगाती हूँ। पर ....यह फूल किसने तौड़ा होगा? अभि से पूछूँगी। स्कूल से
आने दो उसको....” सोनल बड़बड़ाती हुई ब्रेकफ़ास्ट लगाने चली गयी।
दो रोज़ बाद उसे गुलाब के पौधे पर
फिर से एक ताज़ा फूल खिला। इस बार सोनल की पैनी नज़रें उस पर थी। सोनल ने पूजा को उस
गुलाब के फूल को तौड़ते हुए देख लिया। सोनल ने उसे कुछ ख़ास नहीं कहा। शाम को
अजयसिंह दफ़्तर से घर लौटा। “चाय पीओगे? मैं आपके लिए चाय लाती हूँ...”सोनल जल्दी से चाय
बनाकर ले आयी। “सुनो, अपने गुलाब के फूल यह पूजा तौड़ती है। कहती है कि
मैं भगवान को चढ़ाऊँगी। अरे ऐसे कैसे भगवान को चढ़ाएगी?”
सोनल बोलती जा रही थी।
“तौड़ने तो बेचारी को। भगवान को ही तो चढ़ाती है!” अजयसिंह ने पूजा से
सहानुभूति जताते हुए कहा।
“अरे ऐसे कैसे तौड़ने दूँ। हमारे
फूल हैं। हमने नहीं लगाए हैं तो क्या हुआ, है तो हमारी बाउंडरी में। भगवान को चढ़ाने हैं तो
मैं चढ़ाऊँगी अपने भगवान को। पूजा को फूल चाहिए तो लेकर आए कहीं से। और हिम्मत तो
देखो बिना पूछे ही तौड़ लेती है फूलों को। अरे हमारे घर में गुलाब का पौधा लगा है
तो हमसे पूछना ही पड़ेगा न । मैं उसके घर में लगे पपीते तौड़ दूँ तो...कुछ पपीते तो
हमारी बाउंडरी की तरफ ही झुके हुए हैं। कल से फूल मैं तौडुंगी...” सोनल गुस्से से
कहे जा रही थी।
“अभि! कल तुम सुबह जल्दी गुलाब का
फूल तौड़ लेना। हम अपने भगवान को चढ़ाएँगे। कल देखती हूँ पूजा को। हमारे गुलाब कैसे
तौड़ती है....” सोनल ने अपने सात बरस के पुत्र को कहा।
कुछ दिन बाद। अजयसिंह हमेशा की
तरह शाम को दफ़्तर से घर लौटा। सोनल चाय बना कर ले लायी। सोनल के चेहरे पर सुकून व
विजय की मुस्कान तैर रही थी। अजयसिंह ने पूछा-“क्या बात है?
बड़ी खुश नज़र आ रही हो! लगता है पूजा से सुलह हो गई है....”
“वो हाँ ... हाँ हाँ... अरे तुमने
अपने घर के आगे दालान में देखा क्या?” सोनल हकलाते हुए बोली।
“क्यों?
क्या कोई ख़ास बात है?” अजयसिंह ने प्रश्न किया।
“नहीं मैं सोच रही थी। बल्कि
मैंने सोचा कि अपने पिछवाड़े में गुलाब का पौधा किस काम का?
किसी को नज़र भी नहीं आता है? अपने घर के बाहर सामने दालान में गुलाब लगा हो तो
कितना सुंदर लगेगा न ...” सोनल कहे जा रही थी।
“तो...तो मैंने...मैंने पीछे वाला गुलाब का पौधा उखाड़कर
घर के सामने लगा लिया ...अब सामने की तरफ गुलाब कितने सुंदर लगेंगे न !” सोनल ने
अपने बात जारी राखी।
“ऐसा बोलो कि पूजा अब गुलाब नहीं
तौड़ पाएगी। बेवक़ूफ़, किससे पूछ कर गुलाब का पौधा पिछवाड़े से
उखाड़कर आगे लगाया। चार फीट ऊंचा पौधा ऐसे
ही हर कहीं लग जाएगा? पता भी है कि गुलाब को कैसे लगाया जाता है! किस
मौसम में लगाया जाता है! बिना सोचे समझे अच्छे भले पौधे को उखाड़ कर बरबाद कर
दिया....”अजयसिंह लगभग चीखते हुए बोला।
“अरे,
चिल्लाते क्यूँ हो? कौनसा गलत काम किया है। रोज़ पानी दूँगी। देखना यह
पौधा कितना सुंदर लगेगा। फिर देखना कितने सुंदर सुंदर गुलाब खिलेंगे?” सोनल
ने सफाई दी।
“ठीक है ठीक है ...दस बाल्टी पानी उंडेलना रोज़। दो दर्जन गुलाब
एक साथ खिलेंगे। फिर बढ़िया सी गुलाबों की माला गूँथकर अपने गले में डाल लेना...”
ऐसा कहते हुए अजयसिंह टीवी पर आई. पी.
एल. के टी-ट्वेंटी क्रिकेट मैच
देखने में व्यस्त हो गया।
“हाँ, हाँ,
गुलाब के फूलों की माला गूँथूंगी....पर
तुम्हें दूँगी। तुम पहनना उस माला को उस चुड़ैल तमन्ना भाटिया के गले में। तमन्ना
तमन्ना तमन्ना .... चुड़ैलों के स्केच बनाने के सिवा कोई काम आता भी है तुम्हें?
कभी मेरे बेटे अभि का होमवर्क भी करा देते पर नहीं.....तुम्हें तो....” सोनल
बड़बड़ाते हुए किचन में चली गई और प्याज छीलने लगी। सोनल के वास्तविक आँसू प्याज़ की
तीव्र गंध से निकलने वाले आंसुओं में मिल गए।
करीब एक सप्ताह बाद। अजयसिंह टीवी
पर एक के बाद एक चैनल चेंज किए जा रहे था। रात्रि के भोजन का वक्त हो चला था। सोनल
ने कहा-“सुनो अजय, खाना लगा दूँ...”
“ज़रा ठहरो...थोड़ी न्यूज़ देख
लूँ...” अजयसिंह ने उत्तर दिया। सोनल अजयसिंह के करीब आकर पलंग पर बैठ गई। पर
अजयसिंह का ध्यान अभी भी टीवी पर था। सोनल ने उसके बालों में उँगलियाँ फेरनी शुरू
करदी। अजयसिंह ने पूछा-“क्या बात है सोनल? कुछ कहना चाहती हो?”
“नहीं,ऐसा
तो कुछ नहीं है...” सोनल ने कहा। कुछ देर का पाज़ लेकर उसने फिर कहा-“सुनते हो अजय,
वह गुलाब का पौधा लग नहीं पाया। मैंने बाई से कह कर उसको बाहर फिंकवा दिया। पूरी
तरह मुरझा गया था....”
“अच्छी बात है....खाना
लगाओ...”अजयसिंह ने मुस्कुराते हुए कहा और वह तमन्ना भाटिया के एक तेलुगू गाने की
पंक्तियाँ गुनगुनाने लगा।
“अरे रे अरे रे मनसे जा रे अरे रे
अरे रे वयसे मारे ...इधि वरि कीपडु
लेधे.....”
-अजीत पाल सिंह दैया