Wednesday, August 7, 2013

बारिश



कुछ नज़्में
मेज़ के नीचे छुप गईं
कुछ शेर
सिमट कर एक कोने में
दुबक गए...
शायर के घर की छत है
बारिश में टपकेगी ही!
-APSD

The Planets

One day
We were strolling
On the moon,
We traversed and traversed
In the every nook and corner.
Finally, when we got tired
We sat on a plateau.
Suddenly, Priya picked some
round shaped pebbles
and told me she
Yeah, let us play

And started we playing the marbles.
When about to lose I was
I started to cheat
But she got the clue
Filled with immense anger
She threw the marbles
In the sky.
Those marbles are still revolving
As nine planets!!!!

-APSD 

चाँद पर बारिश

उस दिन
हम चाँद पर थे , 

उसने बित्ते भर का गड्डा खोदा,
अपने पर्स से निकालकर
इमली का एक बीज
गड्डे में रख
ढांप दिया मिटटी से .
मैंने कहा-
पागल हो गयी हो प्रिया !
चाँद पर बीज बो रही हो ? 

प्रिया ने चुप रहने का इशारा किया
और हल्के से मुस्कुरायी.
वह घुटनों के बल बैठी,

आकाश की ओर उठे
उसके दोनों हाथ, 

खुदा से एक मुख्तसर सी
गुजारिश हुई, 

और..........
...
उस रोज पहली दफा
चाँद पर बारिश हुई

-ajit pal singh daia

'धूप'

सदियों से तड़प रहा हूँ मैं
केवल एक टुकड़ा धूप के लिए
मुझे घोर आश्चर्य है कि
इतने लम्बे इंतजार के बाद भी
मेरा घर धूप से महरूम है !
मेरे घर के सारे दरीचे दरवाजे
हमेशा से ही खुले हुए हैं .
टाट के परदे भी नहीं लगाये हैं मैंने
दीवार की जगह भी खली रखी है मैंने
तो कमरों की छत भी खोल रखी है मैंने
पता नहीं किस तरफ से
एक टुकड़ा धूप आ जाये मेरे घर में .
आश्चर्य की बात है
इतने जतन के बाद भी
मैं आज तक तरस रहा हूँ
एक टुकड़ा धूप के लिए .
सूरज पर मेरा विश्वाश अडिग है
कभी मन में संदेह नहीं हुआ कि
सूरज मेरे प्रति दुभांत रखता है
उसी ने वंचित कर रखा है मुझे
एक टुकड़ा धूप से
कोई साजिश रचकर .
नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए
नहीं यह नहीं हो सकता
हरगिज़ नहीं हो सकता .
उसने तो ज़रूर रखा होगा
एक टुकड़ा धूप मेरे घर के लिए
और ज़रूर भेज दिया होगा
किरण के साथ .
कही किरण तो विश्वासघातिनी नहीं
हो सकता हो मेरा एक टुकड़ा धूप का
दे आयी हो किसी और को वह .
ओह ! सड़क के उस पर
वह अट्टालिका इतनी दीप्त है !
देखूं तो ज़रा
यह क्या ?
उस कनक महल के रेशमी पर्दों के पीछे
कडवा सच नज़र आता है .
सूरज तो शायद निर्दोष हो
पर सचमुच
यह किरण का विश्वासघात है
मेरा एक टुकड़ा धूप
उस भव्य अट्टालिका में कैद है.
-APSD

Tuesday, April 16, 2013

"मुंबई"

जुहू बीच पर 
घुटनों तक पानी में खड़ी
तुम्हारी वय की
एक रूपसी को देखा,
तो तुम्हें याद किया. 
नरीमन पॉइंट पर 
एक मोड़ पर गुलमोहर को
फूलों से लदा देखा, 
तो तुम्हें याद किया. 
ज़हांगीर आर्ट गेलरी के बाहर 
एक आर्टिस्ट को देखा
एक युवती का पोर्ट्रेट बनाते, 
तो तुम्हें याद किया. 
गेट वे ऑफ़ इंडिया पर 
एक षोडशी पृष्ठभूमि में 
स्थित ताज होटल के गुम्बद को 
अपनी अंगुली से छूने का 
बनाकर पोज़ 
अपना फोटो खिंचवाने को तत्पर दिखी, 
तो तुम्हें याद किया.
तुम्हारे मेरे बीच मीलों 
ये दूरियां हाय, ये मजबूरियां. 
ओह प्रिया! तुम्हारी याद में
ये देखो मेरी आँखें जल रही हैं 
आंसू आ रहे हैं.
वह बोली- चल झूठे, 
किचन में काट रही हूँ
प्याज़ सो आंसू आ रहे हैं तुम्हारे,
लो सेलफोन रखो, 
दाल में तड़का लगाने जा रही हूँ मैं. 
--अजीत पाल सिंह दैया

Sunday, March 10, 2013

ग्लोबल वार्मिंग

मैं देर से घर आता हूँ
आफिस से आदतन प्रिया
और तुम्हारा पारा चढ़ जाता है
उफ़्फ़ , तुम्हारे गुस्से की आंच में
पिघल रही है
ध्रुवों की बरफ ,
और परेशान हो रहे हैं
ग्लोबल वार्मिंग कहकर
साइन्स्दाँ ख्वाम्खाह !!!

-
अजीतपाल सिंह दैया

Saturday, March 9, 2013

आदत

मुनासिब नहीं है आजकल
रात को छ्त पर लेटना
आसमां से चिंगारियों को देखा है मैंने
ज़मीन की ओर गिरते ,
चाँद को आदत हो गयी है शायद
सिगरेटें फूंकने की!

-
अजीतपाल सिंह दैया

वसंत

आओ
फिर एक बार वसंत.
गिर गए
जीर्ण –शीर्ण पान
कोमल टहनी
किसलय सजे
नवसृजन गान.
सस्मित
नीलगगन
हर्षित दिगंत.
 

खिले भांति भांति
पुष्प चहुं ओर
कुंज –निकुंज
तितलियाँ करती
नृत्य चितचोर.
अहो , नववधू सी
वसुधा श्रीमंत !!!
 

-अजीतपाल सिंह दैया

कैनवास

हर रोज़
अपने बालों में
तुम एक फूल
लगा लेती हो ,
अब बस भी करो प्रिया
चंद डालियाँ भर
बची है
मेरे कैनवास पर !!!
-APSD

"लाल गुलाब"

किसी चलचित्र में देखा था
अमोल पालेकर को
ज़रीना वहाब के जूड़े में
एक फूल लगाते।
ये चलचित्र भी कितने अजीब होते हैं
कितनी इच्छाएं –उत्तेजनाएं
पैदा कर देते हैं,
मेरी भी हसरतें जाग गयीं
तुम्हारे जूड़े में एक रोज़
एक फूल लगाने की
तमन्ना पाले बैठा हूँ,
क्या हुआ मैं जो पालेकर नहीं
या तुम जो नहीं हो ज़रीना।
मैं फिर भी आश्वस्त हूँ,
एक दिन मैं तुम्हारे जूड़े में
फूल लगाऊँगा ,
पर कभी कभी लगता है
कि तुम रच रही हो षड्यंत्र
मेरे विरुद्ध
मेरी हसरतों के खिलाफ़।
मैं गली के मोड़ पर
खड़ा रहता हूँ
हाथ में एक लाल गुलाब का फूल लिए
कि तुम्हारे जूड़े में लगाऊँगा,
पर यह क्या,
तुम रोज़ ही गुजरती रही
कंधे तक लटकते लहराते
खुले बालों के साथ,
मुझे कुछ समझ में नहीं आता,
तुम्हें जूड़ा बांधना पसंद नहीं है
या मेरे हाथों अपने जूड़े में
लाल गुलाब लगाया जाना,
या मुमकिन है तुम भाँप गयी हो
मेरे इरादों को ,
और तिरस्कृत कर देना चाहती हो
मेरी हसरतों को ,
क्या तुम्हारे खुले बाल
यूं ही खुले रहेंगे और
मैं ले जाता रहूँगा अपने गुलाब
वापस अपने साथ,
तुम्हारे ठुकराये हुए गुलाब
गमले की मिट्टी में फिर से
घुलमिल कर नए गुलाब बन
खिल जाते हैं और
मुझे उपलब्ध रहते हैं
हर बार नए गुलाब
तुम्हें समर्पित करने के लिए।
मैं आज भी
तुम्हें उसी मोड़ पर
हाथों मे एक गुलाब लिए
यूं ही खड़ा मिलूँगा,
तुम अपने खुले बालों को बांध कर
एक अदद जुड़ा बनाकर
आना तो सही।
-अजीतपाल सिंह दैया