Sunday, November 25, 2012

बीज

नन्हा सा बीज
पर बीज की जीजिविषा
छः अंगुल मिटटी से
नहीं है दबती
अंजुरी भर पानी
पीकर जुटता है आत्मबल
मिटटी के बोझ को चीर कर
धरती की कोख से
अंततः आ ही जाता हे बाहर
और एक दिन
विशाल दरख़्त बनकर
अपने बूते पर
खड़ा हो जाता है
नन्हा सा बीज.
- ajit pal singh daia

Wednesday, July 4, 2012

एक दफा

एक दफा
जा रहे थे हम दोनों
अनजान डगर पर कहीं ,
बहुत कहा था उसे
थाम कर रखना
मेरी उंगली को ,
पर मेरी अंगुली छुडा कर वोह
जा बैठा फलक पर
वोह चांद बड़ा चंचल था प्रिया। 

-अजीतपाल सिंह दैया 

Saturday, June 16, 2012

नियति


कैनवास पर जब मेरी तस्वीर
धुंधली होने लगेगी तो
मुझे पता है तुम मुझे भूल जाओगी ,
दरख्त की शाखों से छिटक कर
जब पीला पत्ता जमीन पर गिरा
तो किसने परवाह की है उसकी ,
कब तलक मैं ताज़ा फूल बनकर
तुम्हारी वेणी को सजाता रहूँगा
एक रोज़ जब तुम भी
वेणी गूंथना छोड़ दोगी तो
मैं तो पहले ही मुरझा चुका होऊंगा ,
कितने बरस जंग लगे लोहे के बक्से में
पीले पड़ते  रहेंगे पत्ते ,
ऊब चुके होंगे उन पन्नों पर
लिखी मेरी नज़्मों को
हजारों बार पढ़ते पढ़ते काकरोच,
 फिर तो शायद कोई रद्दी वाला भी
नहीं खरीदेगा उन किताबों को
और तुम भी कब तक ज़बानी याद रखोगी
मेरी नज़्मों को ,
तुम्हें भूलना ही होगा  उनको
तुम्हारी याददाश्त तो सीमित है
पुरानी को भूले बगैर
तुम कैसे याद कर पाओगी
नए जमाने की नई कविताओं को !
मुझे पता है
तुम मुझे भूल जाओगी
पर फिर भी इतना तो ज़रूर कहूँगा
की शायद फिर उगूँगा
किसी उर्वर ज़मीन पर
संभव है
तुम मुझे फिर से पहचान लोगी
उन लम्हों की गंध से
जो बाकी होंगे किन्हीं कोने में
तुम्हारी स्मृति के ।
-- अजीतपाल सिंह दैया

Tuesday, January 17, 2012

गुलाब

गमले में लगा हुआ था
एक बहुत ही सुंदर लाल गुलाब
महक रहा था मधीर मधीर
दिल ने चाहा
तोड़ लूँ उसे लपक कर
और भेंट कर दूँगा उसे
आज की मुलाक़ात पर .....
नीचे झुका गुलाब को छूआ
और ज्यों ही तोड़ने को हुआ
दिल ने ना कर दी
अरे रहने दो इसे
कितना सुंदर है
यहीं ठीक है यह .....
मुलाक़ात हुई
उसका चेहरा
अपने दोनों हाथों मे थामा
ओह ...
‘तुम भी तो
गुलाब से कतई कम नहीं......!”
- मैंने कहा ।
@ अजीतपाल सिंह दैया