Monday, December 21, 2009

जब कि तुम


जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.
तुम चांदनी सी उतरती हो जब
पूनम की रात उजली चुनरी में
मैं बचाना चाहता हूँ तुम्हारा दामन
अँधेरे के कलुषित दाग से
ना जाने क्यों
जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.

स्वयं को ना पहचान सका अब तक
स्वयं के प्रकाश में ,
स्वयं को पहचानने की आस में
अक्सर ढूँढने लगता हूँ अपना
अस्तित्व तुम्हारी आँखों की असीम गहराइयों में
यूं ही अनायास
जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.

जिस रात तुम आई थी
पहली बारिश में भीगी
माटी की सी महक सी
मेरे सपने में ,
वही सपना आज तक सहेज कर
रखा है अपनी पलकों पर
आने वाली हर रात के लिए
और आज भी मुन्तजिर हूँ तुम्हारा
जब कि तुम मेरी कुछ नहीं लगती
मैं जो तुम्हारा कुछ नहीं लगता
क्यों सोचता हूँ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में.

@ अजीत पाल सिंह दैया

THE PLANETS


One day
We were strolling
On the moon,
We traversed and traversed
In the every nook and corner.
Finally, when we got tired
We sat on a plateau.
Suddenly, Priya picked some
round shaped pebbles
and told me she
Yeah, let us play
And started we playing the marbles.
When about to lose I was
I started to cheat
But she got the clue
Filled with immense anger
She threw the marbles
In the sky.
Those marbles are still revolving
As nine planets!!!!

चन्द्र यान


That day
I was on the moon
Desperately missing you, Priya
I was drinking, drinking and drinking.
There kept I plenty of ice
In an ice box
For pouring in my drink.
Probably, that ice box had toppled down
And the ice thawed
And spilt over the moon's surface.
No wonder!
The Chandrayan detected that water
On the moon.
But I do wonder
Why the Chandrayan has not found
The empty bottles of Champagne
And shattered glasses there.

@ AJIT PAL SINGH DAIA

Saturday, August 1, 2009

मै, मेरी नज्म और प्रिया

गुलमोहर के उस दरख्त पर
रहने वाली उस बुलबुल को
सुनाया करता था
रोज़ एक नज़्म लिख कर ,
जिसका आना जाना था उसके घर ।
या तो बुलबुल ने ही सुनायी नहीं होंगी
नज्म मेरी उसको
या वोह ही रही होगी
अड़ियल जिद्दी ।
दिल उसका गर था पत्थर ,
पत्थर दिल सजनी ,
इशरत में मेरी फ़िर भी था दम
न उसका अड़ियलप
न नज्म मेरी
ज़रा भी हुए कम ।
पर ........पर .....
आख़िर वही हुआ
जो मैं चाहता था
जो चाहती थी शायद वोह भी
और फ़िर उन लम्हों को
आदत हो गयी ....
कॉफी हाउस की
कार्नर टेबल पर
मैं ,मेरी नज्में और
प्रिया !!!
@ अजीत पाल सिंह दैया

Friday, July 10, 2009

सन सेट पॉइंट

याद है प्रिया
पिछले साल
सन सेट पॉइंट पर
तुम जिस कीकर के
दरख्त से
सट कर खड़ी हुई थी ,
लोग कहते हैं
उस दरख्त से चन्दन की
महक आने लगी है।
@अजीत पाल सिंह दैया

Saturday, July 4, 2009

याद में


नज़्म-याद में
उस दिन
पब्लिक पार्क में
गुल मोहर के नीचे
मुनिसिपालिटी की
टूटी बेंच पर
एक कोने पर बैठे बैठे
जब मैं तुम्हें याद कर
एक प्रेम गीत लिखने लगा
तो अचानक हवा चली
और गुलमोहर के फूल
गिरने लगे ज़मीन पर
तितलियाँ आयीं कहीं से
और मंडराने लगी
मेरे इर्द गिर्द ।
मैंने कहा - यह क्या हुआ ?
हवा हंसने लगी
गुलमोहर खिलखिलाने लगा
तितलियाँ गुनगुनाने लगी
अरे ! कोई बोलो तो सही ।
एक हवा ने छुआ मेरे गाल
को और चुपके से
कहा मेरे कान में
पगले ! एक मुद्दत के
बाद किसी दीवाने
ने लिखने की कोशिश की है
एक 'प्रेम गीत '
प्रेम में सराबोर होकर
इस टूटी बेंच
पर जिस पर अभी भी
पढ़ा जा सकता है
यह लिखा हुआ धुंधले हरूफों में
" निर्मित मेरी प्रिया ............. की याद में। "
अजीत पाल सिंह दैया

Friday, June 26, 2009

लफ्ज़

लफ्ज़ बो रहा हूँ
देखना
कुछ देर बाद
उग आएँगी
नन्हीं नन्हीं नज्में
सफ्हे पर ।
- अजीत पाल सिंह दैया


Tuesday, June 23, 2009

हवाई ज़हाज़

एक कागज़ पर
नज़्म लिख कर
यूँ ही रख दी
मेज़ पर ,
कुछ देर बाद
बबली ने
उड़ा दिया
मेरी नज़्म को
हवाई ज़हाज़ बना कर ।
--अजीत पाल सिंह दैया

Tuesday, May 26, 2009

हैंगर

जब दीवार पर लगे हैंगर पर
मैं अपनी एक और पतलून कमीज
टांग कर मुड़ा तो
मुझे हैंगर की बुदबुदाहट सुनाई दी-
अजीब आदमी है
हैंगर को गधा समझता है
हे प्रभु ! इसकी बीवी आ क्यों नहीं जाती ?
--अजीत पाल सिंह दैया

Thursday, May 21, 2009

चाँद से

अमावस की रात
छत पर खड़ी तुम
चाँद सी दिखती हो
एक दिन
चाँद पर जाऊंगा मैं
और झांकुंगा
तुम्हारे आँगन में ,
देखूंगा कि तुम
चाँद से कैसी दिखती हो!
अजीत पाल सिंह दैया

Saturday, May 9, 2009

हाइकु


आँगन में मोर ।

मां ने डाली होगी ज्वार

जग कर अल भोर ।

**************

रात में चूहों का गीत।

कुतर रहे होंगे सभी

दादा का पुराना सितार ।

**********

मेरी पतंग नहीं उडी ।

कल शाम को

वोह छत पर नहीं आई।

**********

दाल में मिर्ची ठीक ।

एक चम्मच नमक डाल

पत्नी पर झल्लाया ।

**********

तुम्हारी आंखों में आकाश

मैंने ऊपर देखा तो

ऊपर भी आकाश ।

**********

Saturday, April 18, 2009

याद

चीनी तो
एक चम्मच ही
डाली थी
फ़िर भी
इतनी मीठी
क्योंकर लगी है चाय
ओह ! चुस्कियां लेते
आयीं थी
तुम्हारी याद।
-अजीत पाल सिंह दैया

उलाहना

हिमालय की
वादियों का
उलाहना आया है
कि चिनार के दरख्त पर
लिखे तेरे नाम से
अजीब महक आती है
बेचारी वादी
सो नहीं पाती है।
- अजीत पाल सिंह दैया

K

उस रोज़
पापा ने देख लिया था
वह रूमाल,
जिसके एक कोने पर
मैंने कशीदे से K लिखा था ।
तब सिहरन सी उठी थी
मेरे बदन में ,
घर में किसी का भी नाम
K पर तो नहीं है
कदाचित प्रश्न कौंधा हो
पापा के मन में।
मैं आज भी
अपनी पुरानी संदूक से
अक्सर निकाल कर
उस रूमाल को
उसके कोने पर उकेरे
रेशमीन K पर
अपनी अँगुलियों के
पोर फेर कर
महसूस करती हूँ
तुम्हारे अहसास को।

और अब भी
किसी के द्वारा
देख लिए जाने की
आशंका के डर कर
सिहर उठती हूँ।
आज भी मेरे घर में
किसी का नाम
K पर नहीं है।
--अजीत पाल सिंह दैया

Wednesday, April 15, 2009

खौफ़

नागहानी

क्यूँ धुआं -सा उठा है उस तरफ़

जिधर खुलती है

खिड़की मेरे मकान की।

थम गई है सहर की ताज़ा हवा

फ़जां का दम घुटने लगा है

धुआं धुआं होते लम्हों में।


बढती जा रही हैं

चीखें -पुकार -दर्द भरी सदायें

हर सम्त।

ओह! मेरी पेशानी पर

क्यूँ उग आई हैं खौफ़ की बूँदें।


किसके डर से मैंने

बंद कर लिये हैं

घर के सारे दरीचे दरवाजे ।

निगाहें उठी मेरी

छत की तरफ़

उसकी परस्तिश में।


क्यूँ आ रही हैं आहटें

क्यूँ आ रहा है शोर

मेरे घर की जानिब।


आस्तां पर दस्तक हुई

अहले -जूनून की

आवाजें आशना तो थीं

पर ज़वाब न दे पायीं

जुबान व ज़ुम्बिशें जिस्म की।


---अजीत पाल सिंह दैया

बेटी

सपने
जो
शिद्दत से
देखे थे
बाबुल के घर ,
खूंटी पर
टांग कर उन्हें
चली गई वोह
मेहंदी रचा हाथों में
अज़नबी के साथ ,
अपने घर का
बोझ हल्का कर ।
---अजीत पाल सिंह दैया

Monday, April 13, 2009

LA NUIT

La nuit dernièreJ'ai dormi

Juste après exécution

Le portrait de la fille ,

Vue au café

ayant le café

en soirée,

écoutent....!

Cette fille

m'a réveillé

le matin.

---AJIT PAL SINGH DAIA

Sunday, April 12, 2009

नमक

शहर में
किसी भी दुकान पर
नहीं मिला मुझे नमक ,
उसने खरीद लिया था
सारा का सारा ,
मेरे ज़ख्मों पर
छिड़कने के लिए।
--अजीत पाल सिंह दैया

Friday, April 10, 2009

रात कल


रात कल

उस लड़की का

पोर्टेट बनाकर ही

सोया था ,

जो दिखी थी

कॉफी हाउस में

चुस्कियां लेते ,

सुन ......

... सुबह उसी ने

जगाया मुझे।

--अजीत पाल सिंह दैया

Thursday, April 9, 2009

कल शाम


कल शाम

छत पर

खड़े होकर

जब मैं

तुम्हारी नज्में

पढ़ रहा था

अचानक हवा चली

और

तुम्हारी नज्में उड़ चली

आकाश में

पंछी बन कर

तुम्हारे गाँव की तरफ़।

--अजीत पाल सिंह दैया


Tuesday, April 7, 2009

कितने दिनों बाद

कितने दिनों बाद
मेरी तस्वीर को
चूमा है तुमने
मोहब्बत से,
जा आईने में देख
तेरे होठों पर
वक्त की गर्द
जम गई है
जो जमी हुई थी
तेरे और मेरे
दरम्यान।
-अजीत पाल सिंह दैया

हवाएं

हवाएं

इठलाती हैं

इतराती हैं

मदमाती हैं

ज़रूर, तेरा आँचल

उड़ा कर आई हैं।

--अजीत पाल सिंह दैया

The Medal

The golden colour of
The medal hanging there
On the yellow wall
Of my drawing room
Has lost glitter
And become gloomy.

And lost its colour
Also the saffron ribbon
Tying up the medal.
But whenever I look at
The medal I won
Years and years ago.
I still feel that the event
Has occurred just now.
I raise my hands
Trouncing the opponent
I swipe my fist
Towards the sky.
Look, the spectators cry
With joy and zeal
They are crazy for me
And clap for me.
I get on the rostrum
The coveted medal is

Garlanded in my neck.
My breast broadens
Lips smile exuberantly.
My fingers shapes V,
I still feel the fragrance
Of the bouquet of roses

Given to me.I kiss the medal and
Throw a flying kiss
Towards my fiancée
Among the spectators,
Cheering my triumph.
The mammoth applause
Of clapping accolade me,
It still echoes in my ears.
Oh! ... My past is
Deeming into present.
Sorry........my dears. -- AJIT PAL SINGH DAIA

Monday, April 6, 2009

तेरा अहसास

रात की तन्हाईयों में
गूँजती हुई
शबे वस्ल की शहनाइयों में
बातें करता हूँ मैं
तेरी यादों से
मैं ,
तेरी यादें
और तेरे ज़िक्र की खुशबू
पलकों पर सहेजकर
सो गया हूँ
तेरे अहसास का
लिहाफ ओढ़ कर।
--अजीत पाल सिंह दैया

एक लम्स

गुंचे की खुशबू
आज कुछ ख़ास है,
ज़रूर तेरे होंठों ने
छुआ होगा उसे ,
और घुल गई होगी महक
तेरी साँसों की उसमें।
उगते सूरज की लाली
आज कुछ ख़ास लाल है
ज़रूर तेरे होंठों ने
उफुक को चूमा होगा ,
तेरे होंठो का,
बस एक लम्स
मुझे भी दे दे।
-अजीत पाल सिंह दैया


तुम


हिमाचल की वादी में

मैंने पुकारा तुम्हें

तुम ध्वनित होती रही

सदा बनकर बार बार ।

मौसम की पहली

बर्फ सी चनार पर

तुम्हारी हँसी ढूंढता हूँ

दाने अनार पर

शायद तुम्हें न एतबार हो

तुम मेरी मुख्तसर सी

नज्म गुलज़ार हो।

----अजीत पाल सिंह दैया



Saturday, April 4, 2009

The Sun Bird

Beautiful flowers
Of myriad varieties
Bloomed in my garden
Scented is the whole ambient
With enchanting fragrance
Of different flowers.
Often, come in my garden
Birds, birds, birds
Abound in varieties
So colourful so charming
I spell bound looking at them.
That day
Came in my garden
A little tiny sunbird
Very lovely, loveable indeed
Having winsome blue hue
Blushed with freshness
Looking so exuberant so perky.
And then
Selecting a fresh flower
With its long beak
It started sucking the nectar.
Suddenly, that little bird
Looked at me and
Smiled enigmatically.
I fell into fix
I asked-
O beautiful Sunbird!
Why did you laugh at me?
Replied the bird-
Listen O man!
The reason of my laughing
Is just that
When I saw you
A thought came to my mind
That if you were a bird
You only, yes you only
Would have sucked
The nectar of all the flowers
And nothing would leave behind
For we poor birds.
Then I thanked Almighty
That he has not made you Men birds!
Saying this bird flew
And sat on some other flower
And started sucking the nectar.
I was perplexed that
I mulled over
Was it true?
What the sunbird said.
------ AJIT PAL SINGH DAIA

Friday, April 3, 2009

धूप

छू कर तुम्हारा
कंचन सा रूप
निखर गयी है
फागुन की धूप।
-- अजीत पाल सिंह दैया

Thursday, April 2, 2009

फिलहाल

कोहसार का वक़ार
आसमान को छू रहा है,
दरिया का ज़िस्म
अंगडाईयां ले रहा है ।
हर दरख्त हो रहा है संदल
गुलज़ारों में
गुल और तितलियों में है दंगल ।
बुलबुलों के रुखसारों पर
खिल रहे शफ़क के रंग
फिजां आशिकाना है ज़नाब।
इधर मैं हूँ ,
अपनी रोशनी और कलम के संग ।
दिल में उफन रहा है
लफ्ज़ों का समंदर ,
कुछ होने वाला है
मेरे जिस्म के अन्दर ।
कुछ कुछ लफ्ज़
कुछ कुछ मिसरे
दिल से आहिस्ते आहिस्ते
कागज़ पर अंकित कर रहा हूँ ,
जी हाँ ,
मैं उसके लिए
एक प्यारी सी
नज़्म कह रहा हूँ,

गुजारिश एक मुख्तसर सी है ,
मुझे हिचकी आ गयी तो
मिसरे मेरी नज़्म के
गले में अटक कर रह जायेंगे।
चुनांचे कोई याद न करे मुझे
फिलहाल।
---अजीत पाल सिंह दैया

Wednesday, April 1, 2009

तुम्हारे प्यार में

लो कर दी
तुम्हारे नाम
यह सुरमई सी शाम ।
तुम्हारी आंखों में
नज़र आता है
मुझे सारा संसार ।
यूँ ही देखने दो
इनकी असीम
गहराइयों में
ढूँढने दो अपना
महकता हुआ प्यार।
तुम्हारे लबों पर
धरा है मेरा
संचित प्रेम का
उफनता ज्वार ।
तुम्हारी साँसों की महक
ज्यों .........
ज़रा !ठहरो !
जल रही है दाल
कमबख्त रसोई में ,
आज फ़िर खानी पड़ेगी
जली हुई दाल
तुम्हारे प्यार में।

----- अजीत पाल सिंह दैया

चाँद

मेरे कमरे के भीतर
जब चाँद मुस्कुराता था
खिला खिला सा
तो मैं क्यों झांकता
खिड़की से बाहर
अब्र में टकटकी लगा कर
चाँद की तलाश में.
----अजीत पाल सिंह दैया




जुबान

रख दो
लबों पर
लब अपने
दिल की जुबान
लब कहेंगे
दिल की जुबान
लब समझेंगे।
----अजीत पाल सिंह दैया




उलझन

इन्द्र धनुष ज्यों कोई
गगन के गालों पर
तुम डिम्पल सी हो।
तारों वाली चुन्नी में
मलमली कुरते पर
तुम सिंपल सी हो ।
वासंती हवाओं में झूमती
पीले फूलों से भरी
तुम फ़रवरी सी हो।
अमराइयों में पकी हाल ही
खट्टी मीठी कच्ची पक्की
तुम केरी रस भरी सी हो।
भोर भये उगते सूरज की
थिर पानी में डूबी
पहली उजली किरण सी हो ।
जितनी सुलझे उतनी उलझे
जितना भी मैं सुलझाऊं
तुम बड़ी उलझन सी हो ।

--अजीत पाल सिंह दैया



Tuesday, March 31, 2009

कभी कभी


कभी कभी

मुझे ऐसा लगता है

कि आसमान मेरी कमीज़ है

जिसकी ऊपर की बटन टूटी है

और तुमने वह बटन टांगते वक्त

चूम लिया था

अपनी एडी पर उचकते हुए

और अंकित कर दिया

अपने लबों को

कौसे कज्ह के रूप में।

---अजीत पाल सिंह दैया





बरसात की शाम


बरसात की उस शाम

छत पर खड़े होकर

धनुक को निहारते हुए

मुझे लगा कि

तुम मुस्कुराई हो

अपने गांव में

रोटी रोटी बेलते बेलते

मुझे याद करते

विस्मित सी

ठहरी हुई लम्हा लम्हा

ह्श्श ! ! ! !
तवे पर रखी

तुम्हारी रोटी जल रही है

दालान में बेठी

तुम्हारी माँ महसूस कर रही है ।


अजीत पाल सिंह दैया

Monday, March 30, 2009

मंजिलें

मंजिलें

यूँ ही नहीं मिल जाती हैं

जतन करने पड़ते हैं

और जतन भी

कुछ ऐसा करें

कि मंजिलें

शक्कर बन जाएँ

और आप चींटियाँ

देखिये फ़िर

कितना जल्दी

मिलती हैं मंजिलें


--अजीत पाल सिंह दैया

तुम

तू धरती

मैं आसमान

चलें दूर

क्षितिज की सेज पर

सूरज के उगने से पहले

झुककर तुझ पर

मैं चूम लूँ तेरे लब

निस्संकोच

शफक के रंग में

किसे पता चलेगा

तेरे शर्मसार

रुखसारों की लाली भी

शामिल है उसमें।


-अजीत पाल सिंह दैया


हिचकी

मेरी

नज़्म को

हिचकी आ रही है

लगता है उसे

कहीं गुनगुना रही है

वोह।

-अजीत पाल सिंह दैया