Tuesday, March 31, 2009

कभी कभी


कभी कभी

मुझे ऐसा लगता है

कि आसमान मेरी कमीज़ है

जिसकी ऊपर की बटन टूटी है

और तुमने वह बटन टांगते वक्त

चूम लिया था

अपनी एडी पर उचकते हुए

और अंकित कर दिया

अपने लबों को

कौसे कज्ह के रूप में।

---अजीत पाल सिंह दैया





बरसात की शाम


बरसात की उस शाम

छत पर खड़े होकर

धनुक को निहारते हुए

मुझे लगा कि

तुम मुस्कुराई हो

अपने गांव में

रोटी रोटी बेलते बेलते

मुझे याद करते

विस्मित सी

ठहरी हुई लम्हा लम्हा

ह्श्श ! ! ! !
तवे पर रखी

तुम्हारी रोटी जल रही है

दालान में बेठी

तुम्हारी माँ महसूस कर रही है ।


अजीत पाल सिंह दैया

Monday, March 30, 2009

मंजिलें

मंजिलें

यूँ ही नहीं मिल जाती हैं

जतन करने पड़ते हैं

और जतन भी

कुछ ऐसा करें

कि मंजिलें

शक्कर बन जाएँ

और आप चींटियाँ

देखिये फ़िर

कितना जल्दी

मिलती हैं मंजिलें


--अजीत पाल सिंह दैया

तुम

तू धरती

मैं आसमान

चलें दूर

क्षितिज की सेज पर

सूरज के उगने से पहले

झुककर तुझ पर

मैं चूम लूँ तेरे लब

निस्संकोच

शफक के रंग में

किसे पता चलेगा

तेरे शर्मसार

रुखसारों की लाली भी

शामिल है उसमें।


-अजीत पाल सिंह दैया


हिचकी

मेरी

नज़्म को

हिचकी आ रही है

लगता है उसे

कहीं गुनगुना रही है

वोह।

-अजीत पाल सिंह दैया