Tuesday, December 8, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘भाग्यश्री अपार्टमेंट्स’

-कल से दूसरा ठिकाना ढूँढना पड़ेगा।

-क्यूँ?

-तुम्हें नहीं मालूम। यहाँ का ठेकेदार चेंज हो गया है। और हमारा काम भी तो पूरा हो गया है। इतनी बड़ी इमारत खड़ी हो गयी है।

-तो नया ठेकेदार हमें नहीं रख सकता?

-पगली, हम कन्स्ट्रक्शन करने वाले मजदूर हैं। अब फिनिशिंग का काम शुरू होगा।

-कुछ दिनों में वह भी खत्म हो जायेगा। फिर बिल्डिंग बस जायेगी।

-हाँ, और बाहर खड़ा लम्बी लम्बी मूंछों वाला दरबान हमें आसपास भी फटकने नहीं देगा।

-हाँ।

-कितनी अजीब बात हैं, दीनू? हमारी मेहनत और पसीने से यह ऊँचा कॉम्लेक्स बनकर तैयार हुआ है। ईंटों को जोड़ने वाले इस गारे में सीमेंट, कंकरी और पानी ही नहीं बल्कि तेरा मेरा और हमारे जैसे बाकी लोगों के बदन से टपका पसीना भी शामिल है।

-खाली पसीना क्यूँ। तुम्हारे लहू की बूंदे भी तो है। उस दिन तुम्हारे सर पर जो ईंट गिर गयी थी। कितना खून बहा था?

-हाँ, सही कहते हो। उस दिन तुम ठेकेदार से लड़कर मुझे टेम पर अस्पताल ले न जाते तो मैं तो रामजी के घर पहुंच ही जाती।

-अरे, नहीं रे। गरीब ही गरीब के काम आता है।

-तुम कितने अच्छे हो।

-तुम भी।

-सुनो, पास आ जाओ न। इस बिल्डिंग में शायद यह हमारी आखरी रात हो।

-नहीं नहीं, मैं ठीक हूँ यहीं पर।

-चल तू नहीं आता तो मैं ही आ जाती हूँ।


*****

-तुम्हारा बदन लोहे की तरह है रे। क्या खाते हो?

-खाने का क्या? जो भी मिल जाता है खा लेता हूँ। अब इत्ती सी मजूरी में कोई बिदाम थोड़ी ही खा सकता हूँ। और बदन का क्या है? अभी तो जवान हूँ। ईंटे उठाकर ऊपर नीचे चढ़ने से तगड़ी वर्ज़िश हो जाती है।

-तुम्हारी पतली पतली मूँछे जंचती है तुम्हारे होंठों पर।

-अरे, थोडा दूर रहो मुझसे।

-क्यों क्या हुआ। छी! तुम्हारा मुंह बॉस रहा है। दारू पी है?

-नहीं तो।

-झूठ मत बोलो। मैं पहचानती हूँ इस गंध को। मेरा बाप मर गया था दारू पी पी कर। माँ को हम तीन भाई बहनों के साथ बेसहारा छोड़ कर।

-मजूरी करते थे?

-नहीं, थोड़ी बहुत खेती बाड़ी थी गांव में।

-फिर?

-छोड़ो भी अब। तुम इतनी छानबीन क्यों कर रहे हो? जोरू बनाएगा क्या मुझको?

-तुम्हीं ने तो अपने बाप की बात छेड़ी थी।

-ठीक है, ठीक है। ......तुम्हारे हाथ पर सर रखने दो। फ़र्श चुभ रहा है।

-अरे हटो। सट मत। कोई ऊँच नीच हो जायेगी।

****

-दीनू यह तूने क्या किया?

-मैं क्या करूँ? मैंने कहा था न, वहीँ सो जाओ अपनी जगह पर। क्यूँ आयी इधर? चिमट चिमट कर सो रही थी।

-भूल हो गयी। पर मुझे डर रहा है।

-क्यूँ?

-कुछ हो गया तो?

-कुछ नहीं होगा?

-फिर भी।

-देखा जायेगा।

-दीनू, मुझे लड़की पसंद है। अगर लड़की हो गयी तो हम उसका क्या नाम रखेंगें?

-रख लेना कुछ भी।

-कुछ भी नहीं। ऐसा नाम बताओ जो हमेशा याद रहे।

-भाग्यश्री कैसा है?

-रामा रे। बहुत ही अच्छा। कहाँ से सोचा इतना प्यारा नाम?

-आसान था। जिस बिल्डिंग में अभी हम सो रहे हैं, इसका ही तो नाम है-भाग्यश्री अपार्टमेंट्स।

-सचमुच दीनू। तूने तो यादगार नाम दिया है रे। पता है, मुझे क्या लग रहा है? कि इस बिल्डिंग के असली मालिक तो हम लोग ही हैं।

-मालिक?

-क्यूँ नहीं? हमारा घर जो बस गया है इसमें।

-पर हमारा ब्याह कहाँ हुआ है री?

-हो तो गया। और कुछ बाकी है क्या?

-कोई गवाह तो नहीं था?

-था तो।

-कौन?

-उस कोने में टाट पर जो काली बिल्ली सो रही है, उसने सब देखा है।

-पर वोह तो सो रही थी।

-रामजी ने देखा था। वो तो नहीं सोये थे।

-क्या सचमुच रामजी ने देखा था सब? छी, फिरसे मत बोलो। मुझे शरम आ रही है।

-तू और शरम।

-हट ना।

-अच्छा यह बता। भाग्यश्री नहीं हुई और कोई लड़का हो गया तो। तो क्या नाम रखोगी तुम?

-सलमान दीनानाथ यादव।

-वाह री। पर कुछ अलग टाइप का नही है। मुसलमान और हिन्दू का नाम एक साथ।

-गरीब का कोई धरम वरम नहीं होता है रे। हमें थोड़ी ही जाना है कोई मंदिर मस्जिद।

-तुम तो बड़ी समझ दार हो। तुम सलमान को जानती हो? सिनेमा देखा है क्या?

-हाँ, बनारस में देखा था। सलमान खान की फिल्लम। मैंने प्यार किया।

-वाह, ए सुन,चल एक बार फिर करते हैं।

-क्या?

-प्यार।

-चुप, छोड़ो मुझे। वरना शोर मचा दूँगीं।

(चमेली यादव के कृत्रिम प्रतिरोध ने कुछ ही क्षणों मे समर्पण कर दिया। काली बिल्ली को शर्म आ गयी और वह धीरे से उठकर, अंधेरे में गुम हो गयी।)


©अजीतपाल सिंह दैया

Monday, December 7, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘दिल्ली’

-तुम्हें ज़्यादा चर्बी चढ़ी थी देशभक्ति की। क्या जरूरत थी जॉब छोड़ने की?
-ऐसे मत कहो। इट वाज़ फॉर अ चेंज। हमें इंडिया बदलना था। अन्ना के काम को आगे बढ़ाना था।
-तुम क्या सोचते थे? जंतर मन्तर पर तुम्हारे धरना देने से कोई जंतर हो जायेगा। देश की तकदीर बदलने लगेगी रातों रात।
-रातों रात कुछ नहीं बदलता है। पर कहीं तो शुरुआत करनी पड़ती है न। अन्ना और केजरीवाल एक महायज्ञ कर रहे थे। मैं कैसे पीछे रहता।
-और तुमने उनके इस महायज्ञ में अपनी एमएनसी की अच्छी भली नौकरी छोड़ की आहुति दे दी।
-एक करप्शन फ्री कंट्री के लिये यह एक बहुत मामूली चीज़ थी।
-कुछ बदलेगा?
-जरूर। तुम देखती जाना।

*****

-सुना तुमने, केजरीवाल और अन्ना अलग हो गये हैं।
-हाँ।
-अब क्या होगा तुम्हारे इंडिया अगेंस्ट करप्शन का?
-चलेगा यूँ ही आगे। जब तक कंट्री करप्शन फ्री न हो जाये।
-तुम्हें नहीं लगता केजरीवाल ने पॉलिटिकल पार्टी बना कर अन्ना के साथ विश्वासघात किया है।
-नहीं, दोनों अपनी अपनी जगह ठीक हैं। पॉलिटिक्स को पॉलिटिक्स से ही बदला जा सकता है। हम नयी तरह की राजनीति करेंगें।
-तुम कबसे केजरीवाल की भाषा बोलने लग गये।
-सिस्टम को सिस्टम के बाहर रह कर नहीं बदला जा सकता। हमें सिस्टम के अंदर घुसना पड़ेगा। तभी हम करप्शन पर लग़ाम लगा पाएंगे। आम आदमी पार्टी में साफ़ सुथरे लोगों की एंट्री होगी। तुम देखना।
-हाँ देखती हूँ। तुम कैसे राजनीति चेंज करते हो?
-हम जरूर बदलेंगे। इसकी शुरुआत दिल्ली से होगी। हमें आम आदमी का समर्थन है।

*****

-यार, मुझे कतई उम्मीद नहीं थी। तुम लोग सत्ताईस सीटें जीत जाओगे।
-सच कहूँ, उम्मीद तो मुझे भी नहीं थी।
-पर तुम्हारी यह अल्पमत सरकार चलेगी कितना दिन? और बिना पर्याप्त समर्थन के कैसे लागू करोगे अपनी नीतियां।
-हमारी प्राथमिकता लोकपाल को लागू करवाना है।
-कैसे करवाओगे। दोनों ही प्रमुख पार्टियां नहीं चाहती। मेरी मानो तो आप लोगों को पहले दूसरे मुद्दों पर कुछ काम करके दिखाना चाहिए। लोकपाल की ढपली का राग अलापने से कुछ हासिल न होगा।
-हम लोकपाल को नहीं छोड़ सकते। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लिये यह हमारा बुनियादी हथियार है।
-लो सुनो। आई हेव जस्ट रिसिव्ड दिस मैसेज ऑन व्हाट्सऐप कि….
-क्या?
-तुम्हारे केजरीवाल की 49 दिन की सरकार ने लोकपाल को लेकर इस्तीफ़ा दे दिया है। अब बोलो।
-बोलना क्या है? केजरीवाल ने कुछ सोच समझ कर ही यह कदम उठाया होगा। अगले चुनाव में हमारी पूर्ण सरकार बनेंगी।
-आर यू स्योर? तुम 27 सीटें भी बचा पाओगे। मुझे नहीं लगता।
-नहीं। दिल्ली की जनता चेंज चाहती है। हमारी पूर्ण बहुमत की सरकार बनेगी।
-अच्छा। आल द बेस्ट।

*****

-कितने महीने गुजर गए। तुम्हारी पूर्ण बहुमत की सरकार को दिल्ली पर राज करते। मुझे तो कुछ चेंज नहीं लग रहा है।
-चेंज हो रहा है। धीरे धीरे सामने आयेगा।
-तुम्हारे केजरीवाल तो बोलते थे कि हम अलग तरह की राजनीति करने आएं हैं। यही है तुम लोगों की सबकी तरह की अलग राजनीति। मुझे तो तुम लोग भी उसी थैली के चट्टे बट्टे बन गये लगते हो।
-हूँ।
-तर्क नही है अब तुम्हारे पास क्या? अच्छा यह बताओ। जिस लोकपाल को लेकर तुम्हारे केजरीवाल ने 49 दिनों में इस्तीफा दे दिया था। अभी तक क्यूँ नहीं लाये हो उस लोकपाल को जिसकी धुन पर तुम लोग नागिन डांस कर रहे थे।
-छोड़ों न अब इन बातों को।
-क्यूँ जवाब देते नहीं बन रहा है? सांप सूंघ गया है क्या? तुम्हारी सरकार के मंत्री एक एक कर जेल जा रहे हैं या इधर उधर भाग रहे हैं। कैसे चेंज करोगे सिस्टम को यार तुम लोग? अब यह मत बोलना कि साज़िश है यह अपोजिशन की। हमें काम नहीं करने दिया जा रहा है।
-क्या हम अपोलोटिकल नहीं हो सकते? हर समय यही बातें किया करते हैं, जब भी मिलते हैं।
-अच्छा नहीं करती। यह बताओ, तुम्हारे अकाउंट में कितने पैसे हैं? बचे भी हैं या जगह जगह उधारी चढ़ा दिये हो!
-नहीं नहीं। पड़े हैं कुछ पैसे अभी।
-देखो झूठ मत बोलो। फलाना एमएनसी के एक्स डिप्टी मैनेजर, मुझे नहीं लगता। क्या मुझे नहीं मालूम कि तुम कितना सैलरी पाते थे। मैं बात करूँ क्या, बॉस से। तुम फिर से यहां ज्वाइन कर लो। फिर से असिस्टेंट मैनेजर से शुरू करना पड़ेगा। नहीं तो अब तक सीनियर मैनेजर हो लिए होते।
-क्या फर्क़ पड़ता है?
-मतलब अभी तुम्हारा पॉलिटिक्स का भूत उतरा नहीं है। रुको, रुको। बिल में पे करती हूँ।
-नहीं, मैं देता हूँ न।
-क्यों, लड़की के पैसों से डिनर खाना अच्छा नहीं लगता क्या?
-नहीं, ऐसी बात नहीं है।
-अच्छा यह बताओ। तुम्हारे फ्लैट का भाड़ा कितने दिनों से बकाया है? सच बोलना।
-पांच महीने हो गए।
-यह लो मेरा डेबिट कार्ड। कल अपना सारा कर्ज़ा चुकता कर देना।
-नहीं नहीं। यह ठीक नहीं है।
-प्लीज, मेरी रिकेस्ट है। मैं नहीं चाहती कि तुम अपने सर पर इतनी देनदारियां लेकर फिरो।
-अच्छा।
-एक बात और। मानोगे।
-पहले बताओ तो।
-तुम गुड़गांव वाला अपना फ्लैट खाली कर दो। मेरे फ्लैट में शिफ्ट हो जाओ। आजकल मैं अकेली रह रही हूँ। मीरा मुंबई चली गयी है। प्लीज, कम विद मी। मुझे अच्छा लगेगा। एन्ड द अदर थिंग। इफ यू डोंट वांट टू ज्वाइन बेक दिस कम्पनी, देन आल्सो द्वारका इज़ नियरर टू जन्तर मन्तर। यू केन कंटिन्यू विद योर इंडिया अगेंस्ट करप्शन कैम्पेन। आइ ठु वांट ए चेंज, यार। मुझे इंतज़ार है उस दिन का। व्हेन, अवर कंट्री शैल बी टोटल करप्शन फ्री।
-अब, मैं एक बात कहूँ।
-क्या?
-आइ लव यू, अवंतिका।
-शट अप, अर्जुन।

© अजीतपाल सिंह दैया

Saturday, October 17, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘माउंट आबू’

-ए सुनो, अगर हम भी ऐसे ही करेंगे तो उनमें और हम में फर्क क्या रहेगा?
-किनमें?
-उधर देखो, एक ही स्ट्रा से नारियल पानी पी रहे हैं।
-यू मीन पब्लिक डिसप्ले ऑफ़ अफेक्शन।
-हाँ, पर उसमें तो कुछ और भी किया जा सकता है।
-मैं उस हद तक नहीं जा सकता।
-पर कुछ तो हम भी कर सकते हैं। चल एक ही केन से मुंह लगा कर कोक पिया जाये। या पिज़्ज़ा खाते हैं। एक कोर तुम एक कोर मैं।
-पर यह भी तो घिसा पिटा ही फार्मूला है। बल्कि अमीर लौंडे-लौंडियों की चोंचला टाइप हरकतें हैं। रोज ही तो देखता हूँ अपने अहमदाबाद में लॉं गार्डन पर।
-तो नया क्या करें क़ि यह नक्की झील हमें हमेशा याद करें। मतलब मैं तुम और हमारा प्रेम।
-उसके लिए तो मुमताज़ और शाहजहाँ बनना पड़ता है। मुमताज़ मरेगी तो ताजमहल खड़ा होगा।
-व्हाट डू यू मीन। शेल आई ड्रोन इन दिस लेक। डूब कर मर जाऊँ यहाँ।
-नहीं बाबा, मेरा या मतलब नहीं था। और डूबना ही है तो माउंट आबू में क्यूँ? तुम्हारी रूह नक्की झील में भटकती रहेगी। वैसे कांकरिया झील भी सुंदर जगह है।
-किस लिए?
-डूबने के लिए।
-चल हट। मैं क्यू डूबूँ। अच्छा, तुम्हें मालूम है, ताजमहल के बारे में किसी ने क्या कहा है?
-किसने ?
-किसने क्या? साहिर लुधियानवी ने।
-क्या कहा था?
-यही कि एक शहँशाह ने हसीं ताजमहल बनाकर हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया था मज़ाक।
-तो ऐसा करो न, तुम भी उड़ाओ अमीरों की मुहब्बत का मज़ाक।
-ग्रेट। लेट मी थिंक। अच्छा तुम यहीं ठहरो। मैं अभी आती हूँ। सुनो, उस नीले दुपट्टे वाली की तरफ ध्यान मत दो। मैं देख रही हूँ कि तुम्हारा ध्यान बार बार उधर जा रहा है।

-चल, अब कुछ मटरगश्ती करें।
-मतलब?
-मतलब क्या? झील के किनारे किनारे चलो मेरे साथ। ये मटर रखो। छील छील कर एक दूसरे को खिलाएँगे।
-मतलब, यही तुम्हारी मटरगश्ती है।
-लो यह लाल टमाटर भी पकड़ो।
-इसका क्या करूँ?
-पहले कुछ रस तुम चूसो। फिर तुम्हारे झूठे टमाटर का रस मैं चूसुंगी।
-आर यू सिल्ली? लोग क्या कहेंगे?
-कहने दो न। अच्छा पहले मैं चूसती हूँ। .....अब लो पकड़ो यार यह टमाटर।
-पागल, हम पीस लग रहे हैं। देखो, सभी हमें ही घूर रहे हैं।
-घूरेंगें हीं। अमीरों की मुहब्बत का मज़ाक जो उड़ा रहे हैं।

© अजीतपाल सिंह दैया

Friday, October 9, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘झाँसी’

-देख रहे हो न। किले की कोई दीवार क्या कोई छत तक नहीं छोड़ी।
-इसके बिना प्रेम, प्रेम थोड़ी ही न होता है।
-मतलब जब तक चाक या कोयले से यहाँ जोड़े में नाम नहीं लिख दिया जाये, प्रेम की प्रॉपर रस्म अदायगी नहीं होती है।
-शायद। पर देखो, कहीं भी तो कोई खाली जगह नहीं छोड़ी है। मुझे तो लगता है झाँसी के सारे ही लोग प्रेमी हैं। सबने अपनी अपनी मेहबूबाओं का नाम लिख दिया है यहाँ पर अपने नाम के साथ।
-क्यूँ, किसी महबूबा भी तो लिखा होगा नाम अपने महबूब का। चलो छोड़ो, अरे तुम रानी का किला देखने आई हो या प्रेमियों की निशानियां बांचने।
-रुको, शायद मेरा भी कहीं नाम हो किसी के साथ।
-बस करो। इस बारादरी से बाहर निकलो, जानेमन। श्वानों के मलमूत्र की सडांध से मेरा दम घुटा जा रहा है।
-देखो, मेरा हाथ पकड़ कर खींचा मत करो। चिट्टियां कलाइयाँ मुड़ जाएंगी मेरी। चल तो रही हूँ न।
-लो इधर देखो। ‘कड़क बिजली’ पर भी नाम खोदे हैं। लोहे की इस तोप पर अपने प्रेमी या प्रेमिकाओं के नाम लिखना कितना मुश्किल होता होगा न।
-मुझे तो ये लोहार और लोहारन का नाम ही लगता है। कमबख्त ने तोप बनाने के टाइम ही ढाल दिए होंगे ये नाम।
-अरे उधर देखो। गणेश मंदिर की ओट में दो प्रेमी गुफ़्तगू कर रहे हैं। शायद अपना नाम लिखने के लिए किले में खाली जगह की रिसर्च कर रहे हैं।
-सिल्ली। नाम लिखने के लिए नहीं, बल्कि एक दूजे के बदन के भूगोल का रिसर्च कर रहे हैं। लगता है तुम अहमदाबाद में रहकर भी कभी लव गार्डन नहीं गयी हो।
-तुम्हें तो ऐसे ही खयाल आएंगे। जाकी रही भावना जैसी। बाइ द वे। देट्स लॉं गार्डन, नोट लव गार्डन।
-सो व्हाट? लॉं गार्डन में तुमने किसके हाथ में इंडियन पिनल कोड या क्रिमिनल प्रोसिजर कोड देखा है कभी? अच्छा, बहुत हो गया अब यह किला दर्शन। चलो, चलते हैं यहाँ से। बहुत देख लिया इस खंडहर को। होटल चलते हैं।
-मैं सोच रही हूँ। हमारा नाम भी लिख ही दूँ किले में, किसी खाली स्थान पर। रानी लक्ष्मी बाई भी क्या याद करेगी कि उसके किले में एक अमदावादी जोड़ा आया था।
-अरे ठहरो, क्यूँ कोयले से हाथ काला करती हो?
-रुको तो सही। मैं अभी आई।

-यह क्या, कोई और जगह नहीं मिली। गौस मुहम्मद की कब्र पर लिख दिया।
-और कोई जगह बची कहां थी।
-लेट मी सी। देखूँ तो क्या लिखा है?
-सिमरन लव्स राज। पर ये तो हमारे नाम नहीं हैं।
-क्या फ़र्क़ पड़ता है। शीरीं फ़रहाद हो या सिमरन राज। प्रेम तो किया है न हमने, राज।
-हाँ सिमरन, सच कहती हो तुम।

क्या आप झाँसी में रहते हैं और किले की दीवारों पर अपने प्यार का प्रमाण पत्र नहीं लिखा। धिक्कार है आपके प्रेम पर।

© अजीतपाल सिंह दैया

एक लघु प्रेम कथा- ‘रेस्तरां’

-वेटर, एक कॉफी और लाओ।
-कॉफी ही कॉफी। काफी नहीं हो गयी कॉफी। लगता है तुम मुझे कॉफी में ही निपटा देना चाहती हो।
-नहीं। नहीं। ऐसी बात नहीं है। डिनर भी प्लान करेंगें।
-मैं बेहद खुश हूँ। तुम्हें इतना ख़ुश देखकर।
-मैं सबसे पहले तुमसे शेयर करना चाहती थी यह ख़ुशी।
-आइ एम ट्रूली प्राउड ऑफ यूअर अचीवमेंट। ख़ुशबू सेहरावत, जीएम (फ़ाइनेंस)। इट साउण्ड्स औसम।
-चुप करो। बहुत ज्यादा ही बटर नहीं लगा रहे हो!
-लो, अब सच्ची तारीफ करना भी गुनाह है।
-एक बात कहूँ।
-हाँ, कहो न।
-तुम्हें याद है, जब तुम मुझे पहली बार देखने आए थे।
-हाँ, अच्छी तरह। पापा की जिद थी। तुम उनके दोस्त की लड़की थी। माँ भी सहमत थी। कहा था कि भले घर की लड़की है। अच्छी-पढ़ी लिखी है।
-तो तुम आ गए मुझे देखने। मेरे पापा भी न, ख़ुशी से फूले न समा रहे थे। भारतीय राजस्व सेवा का एक अधिकारी जो उनका दामाद बनने वाला था।
-पर
-पर क्या?
-तुम्हारी वह बात मुझे कतई अच्छी नहीं लगी। सच में, तुमने मेरा मूड ऑफ कर दिया था।
-व्हाट डू यू मीन....मुझे कुछ याद नहीं आ रहा।
-बन रहे हो या सचमुच याद नहीं है।
-तुम याद दिलाओ तो शायद याद आ जाए।
-नाटकबाज़! तुम्हें सब याद है। अटीट्यूड शो ऑफ कर रहे हो।
-अटीट्यूड ही सही। पर कुछ बताओ भी अब।
-यही कि तुमने कहा कि मैं शादी के बाद तुमसे जॉब नहीं करवाऊँगा। मुझे घर में ही रहना होगा। तुम्हारे बच्चे पालने होंगे।
-ओह, हाँ कहा तो था। हाँ याद आया। मेरी यह बात सुन कर तुम्हारा चेहरा गहरी निराशा से भर गया था। मैंने नोटिस किया था। तुम्हें मेरी बात से शॉक लगा था। तुमने सोचा होगा कि कैसा लड़का है। भारत सरकार में ग्रुप ए ऑफिसर और कितनी छोटी सोच।
-सीरियसली। मुझे अच्छा नहीं लगा।
-लगता भी कैसे। मैंने बात ही ऐसी करी थी।
-पर अच्छा ही हुआ। देखो, हम कितने ख़ुश हैं।
-हाँ, तुम्हें इतना ख़ुश देखकर मेरा ख़ुश होना लाज़मी है।
-उस दिन की घटना के बाद, तुम्हारी मॉम का फोन आया था मेरी मॉम के पास कि तुम मुझसे शादी करने के लिए तैयार नहीं हो।
-क्यूँ, मेरा डिसीजन ठीक नहीं था क्या? हम शादी करके शायद कभी ख़ुश नहीं रह पाते, ख़ुशबू। तुम्हारी आँखों में महत्वाकांक्षाएं थी। आइआइएम अहमदाबाद से पोस्ट ग्रेजुएट लड़की को मैं केवल अपने किचन में रोटियाँ बेलते और बच्चों की परवरिश करते नहीं देख सकता था। मुझे एक होम मेकर वाइफ़ चाहिए थी। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं महिलाओं द्वारा जॉब करने के खिलाफ़ हूँ। मेरी अपनी च्वाइस है। आफ्टरऑल, सबको अपनी पसंद का पार्टनर चुनने का हक है। वर्किंग वुमन हो या नॉन वर्किंग वुमन, हरेक की अपनी अपनी प्राथमिकताएं हो सकती हैं।
-मुझे मालूम चला था। तुम्हारे शादी के लिए एग्री न होने के पीछे का कारण।
-हाँ। मैं नहीं चाहता था कि मैं एक बहेलिया बनूँ। एक बुलबुल को पिंजरे में डाल कर बंद कर के रख दूँ। और बुलबुल की महत्वाकांक्षाओं के पंख पिंजरे के तारों से टकरा टकरा कर जख्मी हो जाए।
-अब प्रेमचंद जैसी कहानियाँ मत बनाओ। तुम्हारा आइ.आर.एस. में सलेक्शन कैसे हो गया? एक्चुअली, तुम्हें तो दैनिक जागरण में हिन्दी का संपादक होना चाहिए था।
-हाँ, उड़ा लो मज़ाक मेरा। आज तो हक बनता है जीएम मदाम का।
-सुनो। फ्राइडे नाइट को डिनर करते हैं। तुम अवंतिका को लेकर आना।
-तुम अवंतिका को भाभी क्यूँ नहीं बोलती?
-क्यूँ? अवंतिका जिद कर रही है क्या? तुम्हारे घर आना जाना बंद करना पड़ेगा मुझको। पता चला कि किसी दिन तुम्हारी बीवी मेरे हाथ में राखी ही न थमा दे।
-हो भी सकता है।
-ना बाबा। मुझे कोई शौक नहीं है, रिश्तों को नाम देने का। अच्छा सुनो, क्या उसे पता है कि तुम मुझे देखने आए थे?
-हाँ।
-और आज तक देखते आ रहे हो। (एक ठहाका गूँजता है।)
-तुम्हारी हंसी बहुत खूबसूरत है। ऐसा लगता है कि एक पहाड़ी झरना होले होले उतर रहा हो सुरम्य वादियों से मैदान की ओर।
-चुप। मारूँगी अभी।

रेस्तरां के वातावरण में उनके टेबल-क्लोथ पर चित्रित फूलों की सुगंध धीरे धीरे तीव्र होती जा रही थी। पीले रंग की दो तितलियाँ जाने कहाँ से आयीं और उनकी टेबल के इर्दगिर्द मंडराने लगीं।

© अजीतपाल सिंह दैया

Thursday, October 8, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘अमरकंटक ’

अमरकंटक में नर्मदाजी पर स्थित कपिलधारा वाटरफॉल निहारते हुए।

-तुम्हारी हैयरपिन देना जरा।
-अरे, इस खूबसूरत झरने को देखों न। कितना हसीन है। बाइ द वे, तुम हैयरपिन का क्या करोगे। कान का मैल निकालना है?
-नहीं रे। तुम पहले हैयरपिन दो तो सही।
-ये लो। पर देखो मेरे सारे बाल बिखर गए हैं।
-अच्छी तो लग रही हो। बल्कि खुले बालों में तो तुम पद्मिनी कोल्हापुरे लग रही हो।
-पर तुम मिथुन चक्रवर्ती नहीं लग रहे हो। आइ मीन ‘प्यार झुकता नहीं’ वाला मिथुन।
-तो।
-तो क्या! हाँ, थोड़े से अमोल पालेकर जरूर लग रहे हो।
-अच्छा। तो देखो अब यह अमोल पालेकर क्या करता है?
-क्या?
-प्यार मिटता नहीं।
-क्या? प्यार मिटता नहीं!
-हाँ। जामुन का यह दरख़्त देख रही हो न। इस पर हमारा प्यार अमर करता हूँ, इस अमरकंटक में।
-पर गुजराती में मत लिखना।लोगों को पढ़ने में दिक्कत होगी। और हाँ, सबसे ऊपर लिखो। मेरे प्यार से ऊंचा किसी का प्यार नहीं।
-जामुन के दरख्त का तना कितना नर्म है। बड़ी ही आसानी से अक्षर खुरेद पा रहा हूँ। काश नाम लिखने की तरह इश्क़ भी आसान होता।
-प्रेमिकाएं कोई रजनीगंधाएँ थोड़ी ही होती हैं जो पान की दुकान पर आसानी से मिल जाएगी। अरे अरे। सँभाल के। गिर जाओगे।
-नहीं। बस गोली से बचने के लिए झुका था।
-गोली?
-हाँ। तुम्हारे बाप डैनी डेंजोंगम्पा के गुंडे ने मुझ पर गोली चला दी थी।
-मज़ाक नहीं। मुझे कतई पसंद नहीं कि तुम मेरे पापा की इन्सल्ट करो।
-सॉरी।
-लेट मी सी। देखूँ तो क्या लिखा है तुमने। ‘राज लव्स सिमरन’। पर यह तो हमारा नाम नहीं।
-क्या फ़र्क पड़ता है, सिमरन। प्यार तो किया हैं न।
-हाँ राज।

अमर कंटक की वादियाँ खिलखिला उठीं। नर्मदा के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ने लगे।

© अजीतपाल सिंह दैया

Friday, September 25, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘पालोलिम बीच’

क्या जरूरत थी इस ड्रेस को पहन कर आने की? कितनी चीप लग रही हो।
चीप! तमीज़ से बात करो। देखो उधर, पूरी दुनिया तो ऐसे कपड़ों में डोल रही है।
देखो अपने आपको, पानी में भीगकर बदन पर चिपक गयी है यह ड्रेस। तुम्हारे स्तन दिख रहे हैं।
स्तन! छी! कोई और वर्ड नहीं मिला तुम्हें डिक्शनरी में।
मुझे यह ठीक नहीं लगता। जिस्म की नुमाइश।
मतलब यहाँ सारे लोग मुझे ही देखने आए हैं। अरे, गोआ में ऐसे कपड़े नहीं पहनुंगीं तो कहाँ पहनूँ? कांकरिया लेक पर!
टेक इट ईज़ी। चिल्लाओ मत, लोग देख रहे हैं। मेरा मतलब यह नहीं है।
डेमोक्रेसी में कपड़े पहनने की आज़ादी तो मिलनी नहीं चाहिए क्या यार, हम लोगों को।
हम लोगों को!
यस, आई एम टाकिंग अबाउट होल वुमनकाइंड। इंक्लुडिंग मी।
मतलब क्या है तुम्हारा? डेमोक्रेसी विल बी डिफ़ाइंड बाइ द साइज़ ऑफ द वुमेन्सवेयर। जिस लड़की की टाँगें जितनी ज्यादा उघड़ी है, वह उतनी ही ज्यादा स्वतंत्र है!
नो डिबेट प्लीज़। वी केम हियर फॉर द फ़न। होटल में लड़ लेना। और मैंने भी तो मानी थी न तुम्हारी बात कल रात। मिरामार बीच पर मैंने तुम्हारी जिद पर ‘वोडका’ पी थी। देर सुबह तक हेंग ओवर रहा था मुझको।
अच्छा सॉरी। पहनो जो तुम्हारा दिल करे। हू एम आई टु इंटरफियर?
इट्स ओके। लेट्स गो देट साइड ऑफ द पालोलिम बीच। उधर कोई लोग भी नहीं है।
चलो।

देखो इधर। कितनी सुंदर रेत है यहाँ पर। मैं हमारा नाम लिखती हूँ इस रेत पर।
लहरें मिटा देंगी नाम को।
क्या बुराई है ‘एक दूजे के लिए’ मिटने में। फिर अमर भी तो हो जाएंगे। रति अग्निहोत्री और कमल हासन की तरह।
अच्छा लिखो।
लुक, हाउ गुड इट इज़ लुकिंग? टेक अ स्नेप बिफोर द वेव्ज़ कम। और बहा ले जाए हमारा प्यार, सागर की गहराई में सदा के लिए सहेज कर रखने को।
देखूँ तो क्या लिखा है? सिमरन लव्स राज। पर ये तो अपने नाम नहीं हैं!
क्या फ़र्क़ पड़ता है, राज़?
शायद सच कह रही हो तुम, सिमरन!

(c)अजीतपाल सिंह दैया

Monday, September 21, 2015

यह है प्रेम

कहा था न मैंने
मत आना मेरे पास
पर तुम कहाँ मानीं
नहीं, मुझे समझ नहीं आती है
पढ़ाओगे तो तुम्हीं
और किसी को कहाँ आती है
लिनियर एलजेब्रा
इस मुहल्ले में।
और हुआ क्या,
न कभी तुम पढ़ पायी
और न मैं कभी पढ़ा पाया
बल्कि बाकी थी गणित जो मुझमें
खो गयी कहीं
तुम्हारे कंगनों की खनखनाहट
और होठों की तबस्सुम में।
आखिर में जो हुआ,
न मैं चाहता था
और शायद न तुमने चाहा होगा।
सितंबर के लौटते मानसून की
रिमझिम बरसातें,
तुम प्याज़ के पकोड़े तल रही
अपने किचन में,
चाय की चुसकियाँ ले रहा मैं
बॉलकोनी में बैठकर।
अरे, डोरबेल बजी है
बबली आ गयी है शायद
पाँचवी का इम्तिहान देकर।

(c)अजीतपाल सिंह दैया