Sunday, February 20, 2011

अधीर हृदय पर मूक अधर

तड़प मेरी फूलों में घुलकर
महक रही है मधुमय होकर ,
भ्रमर प्रतीक्षा कब तक होगी
डरती क्षण क्षण सिहर सिहर.
मेरे हृदय स्पंदन को छूकर
स्नेह आवेगों की ऊष्मा पाकर ,
समीरण सन्देश तो लाया होगा
उबल रही है मन की लहर .
विरह का मधु आसव पीकर
फिर लज्जालु होठों को सीकर ,
धधक रही अंतस की ज्वाला
उग्र हो रही है मंथर मंथर .
ढूंढ रही मैं सुध बुध खोकर
नयनों को अश्रु से धोकर ,
केवल बिम्ब तुम्हारा दीखता
मेरी पड़ रही है दृष्टि जिधर .
मन हल्का हो अंतस को कहकर
पीड़ा को शब्दों में पिरोकर ,
जाने क्यों मैं इतनी विवश
अधीर हृदय पर मूक अधर .
-अजीत पाल सिंह दैया

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