Sunday, February 20, 2011

मैंने चिर साधना की है

मैंने चिर साधना की है 
युग भारित कण कण जम
मैं आज महापाषाण हुई ,
काल कुठाराघात सहकर
संजीवन थी निष्प्राण हुई .
 
निष्प्राण सही ,साकार बनूँ
सिर्फ तेरा आकार बनूँ
मैंने यही प्रार्थना की है .
मैंने चिर साधना की है .
 
गर्वित हिम खंड खंड हो
करुणा प्रवाह में बह गया,
उत्तुंग शिखर चूर चूर हो
रेती बनकर रह गया .
 
इस रेती में पद चाप बने
हृदय स्पंदन का ताप बने
मैंने यही आराधना की है .
मैंने चिर साधना की है .
 
तपस्विनी मैं ,प्रतीक्षा में तपकर
पिघल गयी हूँ नीर होकर ,
रेंगती रही सर्पिल पथ पर
विरहिणी मैं ,अधीर होकर
.
 
ढूंढ रही हूँ अंकोर तेरी
जिसमें विलीन हो रूह मेरी
मैंने यही वंदना की है .
मैंने चिर साधना की है.
 

-अजीत पाल सिंह दैया

4 comments:

  1. आपका ब्लॉग बहुत सुंदर है......
    और कविता भी, बधाई स्वीकारें !

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