कहा था न मैंने
मत आना मेरे पास
पर तुम कहाँ मानीं
नहीं, मुझे समझ नहीं आती है
पढ़ाओगे तो तुम्हीं
और किसी को कहाँ आती है
लिनियर एलजेब्रा
इस मुहल्ले में।
और हुआ क्या,
न कभी तुम पढ़ पायी
और न मैं कभी पढ़ा पाया
बल्कि बाकी थी गणित जो मुझमें
खो गयी कहीं
तुम्हारे कंगनों की खनखनाहट
और होठों की तबस्सुम में।
आखिर में जो हुआ,
न मैं चाहता था
और शायद न तुमने चाहा होगा।
सितंबर के लौटते मानसून की
रिमझिम बरसातें,
तुम प्याज़ के पकोड़े तल रही
अपने किचन में,
चाय की चुसकियाँ ले रहा मैं
बॉलकोनी में बैठकर।
अरे, डोरबेल बजी है
बबली आ गयी है शायद
पाँचवी का इम्तिहान देकर।
(c)अजीतपाल सिंह दैया
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