Monday, August 22, 2011

'धूप'

सदियों से तड़प रहा हूँ मैं
केवल एक टुकड़ा धूप के लिए
मुझे घोर आश्चर्य है कि
इतने लम्बे इंतजार के बाद भी
मेरा घर धूप से महरूम है !
मेरे घर के सारे दरीचे दरवाजे
हमेशा से ही खुले हुए हैं .
टाट के परदे भी नहीं लगाये हैं मैंने
दीवार की जगह भी खाली   रखी है मैंने
तो कमरों की छत भी खोल रखी है मैंने
पता नहीं किस तरफ से
एक टुकड़ा धूप आ जाये मेरे घर में .

आश्चर्य की बात है
इतने जतन के बाद भी
मैं आज तक तरस रहा हूँ
एक टुकड़ा धूप के लिए .
सूरज पर मेरा विश्वास  अडिग है
कभी मन में संदेह नहीं हुआ कि
सूरज मेरे प्रति दुभांत रखता है
उसी ने वंचित कर रखा है मुझे
एक टुकड़ा धूप से
कोई साजिश रचकर .

नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए
नहीं यह नहीं हो सकता
हरगिज़ नहीं हो सकता .
उसने तो ज़रूर रखा होगा
एक टुकड़ा धूप मेरे घर के लिए
और ज़रूर भेज दिया होगा
किरण के साथ .
कही किरण तो विश्वासघातिनी नहीं
हो सकता हो मेरा एक टुकड़ा धूप का
दे आयी हो किसी और को वह .

ओह ! सड़क के उस पर
वह अट्टालिका इतनी दीप्त है !
देखूं तो ज़रा
यह क्या ?
उस कनक महल के रेशमी पर्दों के पीछे
कडवा सच नज़र आता है .
सूरज तो शायद निर्दोष हो
पर सचमुच
यह किरण का विश्वासघात है
मेरा एक टुकड़ा धूप
उस भव्य अट्टालिका में कैद है.

- अजीत पाल सिंह दैया

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