Thursday, October 8, 2015

एक लघु प्रेम कथा- ‘अमरकंटक ’

अमरकंटक में नर्मदाजी पर स्थित कपिलधारा वाटरफॉल निहारते हुए।

-तुम्हारी हैयरपिन देना जरा।
-अरे, इस खूबसूरत झरने को देखों न। कितना हसीन है। बाइ द वे, तुम हैयरपिन का क्या करोगे। कान का मैल निकालना है?
-नहीं रे। तुम पहले हैयरपिन दो तो सही।
-ये लो। पर देखो मेरे सारे बाल बिखर गए हैं।
-अच्छी तो लग रही हो। बल्कि खुले बालों में तो तुम पद्मिनी कोल्हापुरे लग रही हो।
-पर तुम मिथुन चक्रवर्ती नहीं लग रहे हो। आइ मीन ‘प्यार झुकता नहीं’ वाला मिथुन।
-तो।
-तो क्या! हाँ, थोड़े से अमोल पालेकर जरूर लग रहे हो।
-अच्छा। तो देखो अब यह अमोल पालेकर क्या करता है?
-क्या?
-प्यार मिटता नहीं।
-क्या? प्यार मिटता नहीं!
-हाँ। जामुन का यह दरख़्त देख रही हो न। इस पर हमारा प्यार अमर करता हूँ, इस अमरकंटक में।
-पर गुजराती में मत लिखना।लोगों को पढ़ने में दिक्कत होगी। और हाँ, सबसे ऊपर लिखो। मेरे प्यार से ऊंचा किसी का प्यार नहीं।
-जामुन के दरख्त का तना कितना नर्म है। बड़ी ही आसानी से अक्षर खुरेद पा रहा हूँ। काश नाम लिखने की तरह इश्क़ भी आसान होता।
-प्रेमिकाएं कोई रजनीगंधाएँ थोड़ी ही होती हैं जो पान की दुकान पर आसानी से मिल जाएगी। अरे अरे। सँभाल के। गिर जाओगे।
-नहीं। बस गोली से बचने के लिए झुका था।
-गोली?
-हाँ। तुम्हारे बाप डैनी डेंजोंगम्पा के गुंडे ने मुझ पर गोली चला दी थी।
-मज़ाक नहीं। मुझे कतई पसंद नहीं कि तुम मेरे पापा की इन्सल्ट करो।
-सॉरी।
-लेट मी सी। देखूँ तो क्या लिखा है तुमने। ‘राज लव्स सिमरन’। पर यह तो हमारा नाम नहीं।
-क्या फ़र्क पड़ता है, सिमरन। प्यार तो किया हैं न।
-हाँ राज।

अमर कंटक की वादियाँ खिलखिला उठीं। नर्मदा के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ने लगे।

© अजीतपाल सिंह दैया

No comments:

Post a Comment