Saturday, August 13, 2011

'वह तुम हो'

दरख्तों के कुञ्ज में
पल्लवों के छत्रक से
छन-छन कर जब
किरण मुझसे खेलती है
लुकाछीपी
तो लगता है वह तुम हो.
तुहिन कणों से सजल
नरम नरम मृदुल दूर्वा
जब बिछ जाती है
मेरी पलकों की स्वप्न सेज पर
तो लगता है वह तुम हो.
चाँद से छिटककर
जब शुभ्र ज्योत्स्ना
लिपट कर मुझसे
जगा देती है सिहरन सी
तो लगता है वह तुम हो.
गिरी के अंकोर में
सौम्य सलिला झील के
निस्तब्ध स्वच्छ नीर में
जब शशि का बिम्ब
हँसता है
तो लगता है वह तुम हो.
रात की रानी से
महक चुराकर आती
भीनी भीनी सुरभित हवा
जब चूमती है
मेरे कपोलों को
तो लगता है वह तुम हो.
--APSD

1 comment:

  1. इस कविता को पढ़कर तो लगता है कि सबसे पहले तुम हो .....बहुत सुंदर भावनाएं ...!

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