Thursday, April 2, 2009

फिलहाल

कोहसार का वक़ार
आसमान को छू रहा है,
दरिया का ज़िस्म
अंगडाईयां ले रहा है ।
हर दरख्त हो रहा है संदल
गुलज़ारों में
गुल और तितलियों में है दंगल ।
बुलबुलों के रुखसारों पर
खिल रहे शफ़क के रंग
फिजां आशिकाना है ज़नाब।
इधर मैं हूँ ,
अपनी रोशनी और कलम के संग ।
दिल में उफन रहा है
लफ्ज़ों का समंदर ,
कुछ होने वाला है
मेरे जिस्म के अन्दर ।
कुछ कुछ लफ्ज़
कुछ कुछ मिसरे
दिल से आहिस्ते आहिस्ते
कागज़ पर अंकित कर रहा हूँ ,
जी हाँ ,
मैं उसके लिए
एक प्यारी सी
नज़्म कह रहा हूँ,

गुजारिश एक मुख्तसर सी है ,
मुझे हिचकी आ गयी तो
मिसरे मेरी नज़्म के
गले में अटक कर रह जायेंगे।
चुनांचे कोई याद न करे मुझे
फिलहाल।
---अजीत पाल सिंह दैया

No comments:

Post a Comment