Wednesday, April 15, 2009

खौफ़

नागहानी

क्यूँ धुआं -सा उठा है उस तरफ़

जिधर खुलती है

खिड़की मेरे मकान की।

थम गई है सहर की ताज़ा हवा

फ़जां का दम घुटने लगा है

धुआं धुआं होते लम्हों में।


बढती जा रही हैं

चीखें -पुकार -दर्द भरी सदायें

हर सम्त।

ओह! मेरी पेशानी पर

क्यूँ उग आई हैं खौफ़ की बूँदें।


किसके डर से मैंने

बंद कर लिये हैं

घर के सारे दरीचे दरवाजे ।

निगाहें उठी मेरी

छत की तरफ़

उसकी परस्तिश में।


क्यूँ आ रही हैं आहटें

क्यूँ आ रहा है शोर

मेरे घर की जानिब।


आस्तां पर दस्तक हुई

अहले -जूनून की

आवाजें आशना तो थीं

पर ज़वाब न दे पायीं

जुबान व ज़ुम्बिशें जिस्म की।


---अजीत पाल सिंह दैया

2 comments:

  1. वाह अजित भाई ठीक मिले वापस.खूबसूरत रचना के लिए बधाई कहने या लिखने की क्या ज़रुरत है.....

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  2. THANKS 4 CREATING THIS BLOG,U R 2 GUD,ONE OF THE BEST, OF FEW ,I VE READ SO FAR.KEEP IT UP ,MY BEST WISHES.

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