Wednesday, April 15, 2009

बेटी

सपने
जो
शिद्दत से
देखे थे
बाबुल के घर ,
खूंटी पर
टांग कर उन्हें
चली गई वोह
मेहंदी रचा हाथों में
अज़नबी के साथ ,
अपने घर का
बोझ हल्का कर ।
---अजीत पाल सिंह दैया

3 comments:

  1. बेटियाँ.............हमेशा से ऐसी ही होती हैं।

    ReplyDelete
  2. "कहाँ थे आप इतने दिनों से ,ऐसी गुनगुनाती कविताओं का खजाना लिए "

    ReplyDelete
  3. lajavab, khubsoorat.
    aapki kavitaye bahut sundar hain.

    ReplyDelete